भक्तिकाल – हिंदी साहित्य (Bhaktikal – Hindi Sahitya)
भक्तिकाल का हिन्दी साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है । पन्चरात्र में भगवान के प्रति ममत्व भाव को ही भक्ति कहा गया है। भक्ति का प्रथम उल्लेख कृष्ण परम्परा के अनुसार श्वेताश्वतरोपनिषद में मिलता है।
भक्तिकाल-हिंदी साहित्य
नामकरण – लगभग सभी ने इस नाम को स्वीकार किया। भक्तिकाल के उदय का मुख्य कारण लेखको पर आश्रयदाताओ का प्रभाव रहा है । ये लोग वीरता एवं सौन्दर्य का मिथ्या चित्रण करते करते इतने दुःखी हो गए थे कि ईश्वर के अतिरिक्त इन्हे और कोई उपाय नही सूझता था । अतः ईश्वर को साक्षी मानकर इन्होने लेखन प्रारम्भ किया जिससे भक्ति का उदय हुआ ।
भक्तिकाल के उद्भव में राजनैतिक – धार्मिक – सांस्कृतिक तथा अन्य प्रभाव रहे है। राजनैतिक कारणो में तत्कालीन मुगलो का प्रभाव था तथा धार्मिक कारणो में सभी अपने धर्म सम्प्रदायो को उॅचा उठाने का प्रयास कर रहे थे जिसके कारण कई भावनाएं पनपी। विभिन्न संस्कृतियाॅं समन्वय चाहती थी अतः परिणामस्वरूप भक्ति का उदय हुआ ।
भक्तिकाल के बारे में हजारीप्रसाद द्विवेदी कर कथन – मै जोर देकर कहना चाहता हूॅ कि अगर इस्लाम न आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है।
भक्तिकाल की प्रमुख दो धाराएॅ प्रारम्भिक एक सदी में पनपी जो इस प्रकार है –
1.सगुण भक्ति धारा- क. राम मार्गी —- तुलसी दास ; दैन्यभाव
ख. कृष्ण मार्गी — सूरदास ; सखाभाव
2. निर्गुण भक्तिधारा –
क. ज्ञानमार्गी—– कबीर
ख. प्रेम मार्गी— मलिक मुहम्मद जायसाी
भक्तिकाल-हिंदी साहित्य – भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृति – सहजता ही ईश्वर प्राप्ति का साधन है सगुणो ने मूर्तिपूजा पर बल दिया तथा ईश्वर के आधार का समर्थन किया । इस काल के लेखको ने स्वयं को पथ प्रदर्शक की भूमिका में रखा है । इन्होने ईश्वर प्राप्ति हेतु विभिन्न मार्ग अपनाएं । जीव जगत का वर्णन करना।
निर्गुणो ने सहज साधना पर बल दिया तथा ईश्वर की सत्ता को कण कण मे व्याप्त माना।माया को ठगनी के रूप में देखना ।
भक्तिकाल की परम्पराएॅ-
1सन्तकाव्य काव्य परम्परा
2.सूफी काव्य परम्परा
3.रामकाव्य परम्परा
4.कृष्ण काव्य परम्परा
सन्तकाव्य परम्परा – भक्त्किाल में सर्वाधिक योगदान सन्त परम्परा का रहा । इन सन्तो के दो सम्प्रदाय
रहे है –
आलवार – ये वैष्णव परम्परा के समर्थक थे । नायनार – से शैव परम्पीर के समर्थक थे ं।
दक्षिण भारत मे भक्ति का विकास आलवार औरं नायनार सन्तो द्वारा हुआ है। आलवारो की संख्या 12
थी। एकमात्र महिला सन्त अण्डाल गोदा थी। भक्तिभावना का मूल दक्षिण से माना जाता है । कहा गया
है कि भक्ति द्रविडी उपजी लाए रामानन्द ।
भक्ति के उदभव में सहयोगी सम्प्रदाय –
मध्वाचार्य – द्वैतवादी वैष्णव सम्प्रदाय । समय 13 वी सदी।
जयदेव – पूर्वी भारत में कृष्ण प्रेम के गायक 13 वा सदी
नामदेव – महाराष्ट के प्रसिद्व भक्तकवि । समय 14 वी सदी
रामानन्द -विष्णु भक्ति पर बल । समय 15 वी सदी
वल्लभचार्य – शुद्वाद्वैतवाद । मसय 16 वी सदी
भक्तिकाल-हिंदी साहित्य – सगुण परम्परा का उद्भव –
भक्तिकाल में छह सिद्वान्तो के कारण सगुण मत का उद्भव माना जाता है । ये सिद्वान्त है –
अवतरवाद लीलाचित्रण मूर्तिपूजा में विश्वास
ईष्ट के प्रति अनुराग साकार की कल्पना मोक्ष की अभिलाषा
सगुण विचारधारा के उद्भव में वैष्णव धर्म के वादो तथा ग्रन्थो का विशेष योगदान रहा है। ये प्रमुख वाद है
रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत
रामानन्द का विशिष्ट द्वैतवाद
विष्णुस्वामी का शुद्वाद्वैतवाद
माध्वाचार्य का द्वैतवाद
निम्बकाचार्य का द्वैताद्वैतवाद
चैतन्य महाप्रभु का द्वैताद्वैतवाद।
समर्थ गुरू रामदास का परमार्थ सम्प्रदाय
रामभक्ति काव्य की विशेषताए –
मर्यादापूर्ण जीवन का वर्णन । तत्कालीन परिस्थितयो का चित्रण । काव्यरूपो की विविधता। राम को एक अवतार के रूप में दर्शाना । कलियुग रूपी पापो से मुक्ति का मार्ग केवल राम को मानकर उनकी श्रेष्ठता स्थापित करना।
भक्तिकाल-हिंदी साहित्य – सगुण निर्गुण तथा शैव वैष्णव को एक मानना । तुलसी का भक्ति भाव दीन रहा है। इनकी रचनाओ में निर्वेदजन्य शान्त रस रहा है। समन्वय का भाव इनके काव्य का प्राणतत्व माना जाता है। लोकमंगल इनकी रचनाओ का आधार रहा है।
तुलसी के काव्य की कुछ विशेषताए –
हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इन्हे लोकनायक की उपाधि से सम्मानित किया है।
तत्कालीन सामाजिक चित्रण – खेती न किसान को न भिखारी को भीख बलि ।
बनिक को बणिज न चाकर को चाकरी ।ं।
कलयुग पर व्यंग – मारग सोई सो जा कछु भावा। पण्डित सोई जो गाल बजावा ं।
शुद्र द्विजन्ह उपदेषहि ज्ञाना । मेलि जनेउ लेहि कुदाना ।।
आत्मतोष – श्री रघुनाथ कृपा ते सन्त सुभाव गहोंगो।
जथा लाभ सन्तोष सदा काहू सो कछु न कहोंगो ।।
आसक्ति – निरखि निरखि रघुवीर छवि । बाढहि प्रीत न थोरीे ।
श्रृंगार – राम को रूप निहारति जानकी । कंकण के नग की परछाई ।
यातै सबै सुध भूल गई टेकि रही पल टारति नाहि ।।
वैष्णव शैव समन्वय – शिवद्रोही मम दास कहावा । सो नर मोहि सपनेहु नहि भावा।
सगुण निर्गुण – अगुण अरूप अलख अज होई । भगत प्रेम वस सगुण सो होई ।।
नीति – सचिव वैद गुरू तीन जो प्रिय बोलत भय आस ।
राजधर्म तज नीति कर होई बेगहि नाश ।
अवतार – बाढई असुर अधम अभिमानी तब – तब प्रभु धरि मनुज शरीरा ।
अलंकार – विप्ररूप धरि पवन सुत । आय गयउ जनु पोत ।
तुलसी का समस्त काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है – हजारीप्रसाद द्विवेदी।
कृष्ण भक्ति का उदय –
श्री मदभागवत पुराण से ही कृष्ण भक्ति के अवशेष दिखाई देते है । कृष्ण नाम तो वैदिककाल से ही उपलब्ध होता रहा है। संस्कृत पालि प्राकृत अपभं्रष सभी भाषाओ में कृष्ण का उल्लेख है। महाप्रभु वल्लभचार्य ने कृष्ण भक्ति में कृष्ण प्रकृति तथा आत्मा तीन सिद्वान्तो को भक्ति के उदय का कारण माना है। वास्तव में यदि देखा जाए तो कृष्ण भक्ति का उद्भव अष्टछाप के कवियो द्वारा ही माना जाता है। वल्लभचार्य ने चार प्रकार की पुष्टियों का वर्णन किया है। मर्यादा पुष्टि में भक्त संसार का त्याग सा कर देता है। प्रभाव में संसार के साथ भक्ति का निर्वाह करता है। पुष्टि – पुष्टि में भक्ति का नशा छाया रहता है तथा शुद्व पुष्टि में अनुग्रह की प्राप्ति के बाद भी लीन रहता है।
कृष्ण भक्ति का उदय वस्तुतः लीलावतार से माना जाता है । 10 या 11वी सदी में लीलागान से ही कृष्ण भक्ति का वास्तविक रूप उभर कर सामने आया । क्षेमेन्द्र का दशावतारचरितवर्णन तथा जयदेव का गीतगोविन्द भक्तिकाल के प्रधान चरितवर्णन है। सूरसागर मे भी इसी गेयता को प्रमुखता दी गई है। अर्थगोपन शैली में सूरसागर में दृष्टकूट पदो का संग्रह मिलता है ।ं
अष्टछाप के कवियो में चार शिष्य वल्लभचार्य के थे जिनका नाम है –
सूरदास
कुम्भनदास
परमानन्ददास
कृष्णदास
अधिक जानकारी के लिए देखें https://www.youtube.com/watch?v=bq6Xo7XrQ9E&t=5s