नीरा – हिंदी कहानी
जयशंकर प्रसाद
नीरा – जयशंकर प्रसाद
1
अब और आगे नहीं, इस गन्दगी में कहाँ चलते हो, देवनिवास? थोडी और – कहते हुए देवनिवास ने अपनी साइकिल धीमी कर दी; किन्तु विरक्त दूर और अमरनाथ ने ब्रेक दबाकर ठहर जाना ही उचित समझा। देवनिवास आगे निकल गया। मौलसिरी का वह सघन वृक्ष था, जो पोखर के किनारे अपनी अन्धकारमयी छाया डाल रहा था । पोखरे से सड़ी हुई दुर्गन्ध आ रही थी। देवनिवास ने पीछे घूमकर देखा, मित्र को वही रुका देखकर वह लौट रहा था। उसके साइकिल का लैम्प बुझ चला था। सहसा धक्का लगा, देवनिवास तो गिरते-गिरते बचा और एक दुर्बल मनुष्य ‘अरे राम’ कहता हुआ गिरकर भी उठ खड़ा हुआ। बालिका उसका हाथ पकड़कर पूछने लगी – कहीं चोट तो नहीं लगी बाबा?
नहीं बेटी ! मैं कहता न था, मुझे मोटरों से उतना डर नहीं लगा, जितना इस बे-दुम के जानवर ‘साइकिल’ से । मोटर वाले तो दूसरों को ही चोट पहुँचाते हैं, पैदल चलने वालों को कुचलते हुए निकल जाते हैं, पर ये बेचारे तो आप ही गिर पड़ते हैं। क्यों बाबू साहब आपको तो चोट नहीं लगी ? हम लोग तो चोट-घाव सह सकते हैं।
देवनिवास कुछ झेंप गया था। उसने बूढ़े से कहा – आप मुझे क्षमा कीजिए। आपको 1
क्षमा – मैं करूँ ? अरे आप क्या कह रहे हैं ! दो-चार हंटर आपने नहीं लगाये। घर भूल गये, हंटर नहीं ले आये ! अच्छा महोदय ! आपको कष्ट हुआ न, क्या करूँ, बिना भीख माँगे इस सर्दी में पेट गालियाँ देने लगता है। नींद भी नहीं आती, चार-छ: पहरों पर तो कुछ-न-कुछ इसे देना ही पड़ता है ! और भी मुझे एक रोग है ! दो पैसों बिना वह नहीं छूटता-पढ़ने के लिए अखबार चाहिए; पुस्तकालयों में चिथड़े पहनकर बैठने न पाऊँगा, इसलिए नहीं जाता। दूसरे दिन का बासी समाचार-पत्र दो पैसो में ले लेता हूँ।
अमरनाथ भी पास आ गया था। उसने यह काण्ड देखकर हँसते हुए कहा-‘देवनिवास’ ! मैं मना करता था न ! तुम अपनी धुन में कुछ सुनते भी हो। कुछ चोट चले तो फिर चले, और रुके तो अड़ियल टट्टटू भी झक मारे ! क्या उसे आ गई है? क्यों बूढ़े ! लो, यह अठन्नी है। जाओ अपनी राह, तनिक देखकर चला करो !
बूढ़ा मसखरा भी था। अठन्नी लेते हुए उसने कहा-देखकर चलता, तो
यह अठन्नी कैसे मिलती ! तो भी बाबूजी, आप लोगों की जेब में अखबार होगा। मैंने देखा है, बाइसिकिल पर चढ़े हुए बाबुओं के पाकेट में निकला हुआ कागज का मुट्ठा, अखबार ही रहता होगा।
चलो बाबा, झोंपड़ी में सर्दी लगती है। वह छोटी-सी बालिका अपने बाबा को जैसे इस तरह बातें करते हुए देखना नहीं चाहती। यह संकोच में डूबी जा रही थी। देवनिवास चुप था। बुड्ढे को जैसे तमाचा लगा। वह अपने दयनीय और घृणित भिक्षा-व्यवसाय को बहुधा नीरा से छिपाकर, बनाकर कहता। उसे अखबार सुनाता और भी न जाने क्या-क्या ऊँची-नीची बातें बका करता; नीरा जैसे सब समझती थी ! वह कभी बूढ़े से प्रश्न नहीं करती थी। जो कुछ वह कहता, चुपचाप सुन लिया करती थी। कभी-कभी बुड्ढा झुंझलाकर चुप हो जाता, तब भी वह चुप रहती। बूढ़े को आज ही नीरा ने झोंपड़ी में चलने के लिए कह कर पहले-पहल मीठी झिड़की दी। उसने सोचा, कि अठन्नी पाने पर भी अखबार माँगना नीरा न सह सकी ।
अच्छा तो बाबूजी, भगवान् यदि कोई हों, तो आपका भला करें-बुड्ढा लड़की का हाथ पकड़कर मौलसिरी की ओर चला। देवनिवास सन्न था । अमरनाथ ने अपनी साइकिल के उज्ज्वल आलोक में देखा-नीरा एक गोरी-सी सुन्दरी, पतली-दुबली करुणा की छाया थी। दोनों मित्र चुप थे। अमरनाथ ने ही कहा-अब लौटेंगे कि यहीं गड़ गये !
तुमने कुछ सुना अमरनाथ ! वह कहता था-भगवान् यदि कोई हों-कितना भयानक अविश्वास ! देवनिवास ने साँस लेकर कहा ।
दरिद्रता और लगातार दुःखों से मनुष्य अविश्वास करने लगता है। निवास ! यह कोई नई बात नहीं है-अमरनाथ ने चलने की उत्सुकता उत्सुकता दिखाते
कहा ।
किन्तु देवनिवास तो जैसे आत्मविस्मृत था। उसने कहा- सुख और सम्पत्ति में क्या ईश्वर का विश्वास अधिक होने लगता है ? क्या मनुष्य ईश्वर को पहचान लेता है ? उसकी व्यापक सत्ता को मलिन वेश में देखकर नहीं-ठुकराता नहीं अमरनाथ ! अब की बार ‘अलोचक’ के विशेषांक में तुमने लौटे दुरदुराता हुए प्रवासी कुलियों के सम्बन्ध में एक लेख लिखा था न ! वह सब कैसे लिखा था ?
अखबारों से आँकड़े देखकर ! मुझे ठीक-ठीक स्मरण है। कब, किस द्वीप में कौन-कौन स्टीमर किस तारीख में चले। ‘सतलज’, ‘पंडित’, और ‘ऐलिफैंटा, नाम के स्टीमरों पर कितने-कितने कुली थे, मुझे ठीक-ठीक मालूम था, और ? और वे सब कहाँ हैं ?
सुना है, इसी कलकत्ते के पास कहीं मटियाबुर्ज है, वहीं अभागों का निवास है ! अवध के नवाब का विलास या प्रायश्चित्त-भवन भी तो मटियाबुर्ज ही रहा। मैंने उस लेख में भी एक व्यंग्य इस पर बड़े मार्के का दिया है। चलो, खड़े-खड़े बातें करने की जगह नहीं। तुमने तो कहा था कि आज जनाकीर्ण कलकत्ते से दूर तुमको एक अच्छी जगह दिखाऊँगा। यहीं
यही मटियाबुर्ज है। देवनिवास ने बड़ी गम्भीरता से कहा-अब तुम कहोगे, कि यह बुड्ढा वहीं से लौटा हुआ कोई कुली है।
हो सकता है, मुझे नहीं मालूम। अच्छा, चलों अब लौटें।-कहकर अमरनाथ ने अपनी साइकिल को धक्का दिया।
करूँगा ।
घुमा
देवनिवास ने कहा-चलो उसकी झोंपड़ी तक, मैं उससे कुछ बात
अनिच्छापूर्वक ‘चलो’ कहते हुए अमरनाथ ने मौलसिरी की ओर साइकिल दी। साइकिल के तीव्र आलोक में झोंपड़ी के भीतर का दृश्य दिखाई दे रहा था। बुड्ढा मनोयोग से लाई फाँक रहा था और नीरा भी कल की बची हुई रोटी चबा रही थी । रूखे ओठों पर दो एक दाने चिपक गये थे, जो उस दरिद्र मुख में जाना अस्वीकार कर रहे थे ! लुक फेरा हुआ टीन का गिलास अपने खुरदरे रंग का नीलापन नीरा की आँखों में उड़ेल रहा था। आलोक एक उज्ज्वल सत्य है, बन्द आँखों में भी उसकी सत्ता छिपी नहीं रहती। बुड्ढे ने आँखें खोलकर दोनों बाबुओं को देखा। वह बोल उठा-बाबूजी ! आप अखबार देने आये हैं ? मैं अभी पथ्य ले रहा था; बीमार हूँ न, इसी से लाई खाता हूँ, बड़ी नमकीन होती है। अखबार वाले भी कभी-कभी नमकीन बातों का स्वाद दे देते हैं। इसी से तो, बेचारे कितने दूर-दूर की बातें सुनाते हैं। जब मैं ‘मोरिशस’ में था, तब हिन्दुस्तान की बातें पढ़ा करता था। मेरा देश सोने का है, ऐसी भावना जग उठती थी। अब कभी-कभी उस टापू की बातें पढ़ पाता हूँ, तब यह मिट्टी मालूम पड़ता है; पर सच कहता हूँ बाबूजी, ‘मोरिशस’ में अगर गोली न चली होती और ‘नीरा’ की माँ न मरी होती-हाँ, गोली से ही वह मरी थी-तो मैं अब तक वहीं से जन्मभूमि का सोने का सपना देखता; और इस अभागे देश ! नहीं-नहीं, बाबूजी, मुझे यह कहने का अधिकार नहीं। मैं हूँ अभागा ! हाय रे भाग !
‘नीरा’ घबरा उठी थी। उसने किसी तरह दो घूँट जल गले से उतार कर इन लोगों की ओर देखा। उसकी आँखें कह रही थीं कि, ‘जाओ, मेरी दरिद्रता का स्वाद लेने वाले धनी विचारकों ! और सुख तो तुम्हें मिलते ही हैं, एक न सही!’ अपने पिता को बातें करते देखकर वह घबरा उठी थी। वह डरती थी, कि बुड्ढा न जाने क्या-क्या कह बैठेगा। देवनिवास चुपचाप उसका मुँह देखने
लगा।
नीरा बालिका न थी। फिर भी जैसे दरिद्रता के भीषण हाथों ने उसे दबा
दिया था. सीधी ऊपर नहीं उठने पाई ।
क्या तुमको ईश्वर में विश्वास नहीं है ?-अमरनाथ ने गम्भीरता से
पूछा ।
‘आलोचक’ में एक लेख मैंने पढ़ा था। वह इसी प्रकार के उलाहनों से भरा था, कि ‘वर्तमान जनता में ईश्वर के प्रति अविश्वास का भाव बढ़ता जा रहा है और इसीलिए वह दुःखी है।’ यह पढ़कर मुझे तो हँसी आ गई।-बुड्ढे ने अविचल भाव से कहा। हँसी आ गई। कैसे दुःख की बात है।-अमरनाथ ने कहा।
दुःख की बात सोचकर ही तो हँसी आ गई। हम मूर्ख मनुष्यों ने त्राण की आशा से ईश्वर पर पूर्वकाल में विश्वास किया था; परस्पर विश्वास और सद्भाव को ठुकरा कर । मनुष्य, मनुष्य का विश्वास नहीं कर सका; इसीलिए तो। एक सुखी दूसरे दुःखी की ओर घृणा से देखता था । दुःखी ने ईश्वर का अवलम्बन के लिया, तो भी भगवान ने संसार के दुःखों की सृष्टि बन्द कर दी क्या? मनुष्य बूते का न रहा, तो क्या वह भी ! कहते-कहते बूढ़े की आँखों से चिनगारियाँ निकलने लगीं; किन्तु वे अग्निकण गलने लगे और उसके कपोलों के गढ़े में वह द्रव इकट्ठा होने लगा ।
अमरनाथ क्रोध से बुड्ढे को देख रहा था; किन्तु देवनिवास उस मलिना नीरा की उत्कण्ठा और खेदभरी मुखाकृति का अध्ययन कर रहा था।
आपको क्रोध आ गया, क्यों महाशय ! आने की बात ही है। ले लीजिए अपनी अठन्नी । अठन्नी देकर ईश्वर में विश्वास नहीं कराया जाता। उस चोट के बारे में पुलिस से जाकर न कहने के लिए भी अठन्नी की आवश्यकता नहीं। मैं यह मानता हूँ कि सृष्टि विषमता से भरी है, चेष्टा करके भी इसमें आर्थिक या शारीरिक साम्य नहीं लाया जा सकता। हाँ, तो भी ऐश्वर्य वालों को, जिन पर भगवान की पूर्ण कृपा है, अपनी सहृदयता से ईश्वर का विश्वास कराने का प्रयत्न करना चाहिए। कहिए, इस तरह भगवान की समस्या सुलझाने के लिए आप प्रस्तुत हैं।
इस बूढ़े नास्तिक और तार्किक से अमरनाथ को तीव्र विरक्ति हो चली। अब वह चलने के लिए देवनिवास से कहने वाला था; किन्तु उसने देखा, वह तो झोंपड़ी में आसन जमाकर बैठ गया है।
अमरनाथ को चुप देखकर देवनिवास ने बूढ़े से कहा-अच्छा तो आप मेरे घर चलकर रहिए। संभव है कि मैं आपकी सेवा कर सकूँ। तब आप विश्वासी बन जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं ।
इस बार तो वह बुड्ढा बुरी तरह देवनिवास को घूरने लगा। निवास वह
तीव्र दृष्टि सह न सका। उसने समझा कि मैंने चलने के लिए कहकर बूढ़े को चोट पहुँचाई है। वह बोल उठा-क्या आप ?
ठहरो भाई ! तुम बड़े जल्दबाज मालूम होते हो – बूढ़े ने कहा-क्या सचमुच तुम सेवा करना चाहते हो या ?
अब बूढ़ा नीरा की ओर देख रहा था और नीरा की आँखें बूढ़े को आगे न बोलने की शपथ दिला रही थीं; किन्तु उसने फिर कहा ही या नीरा को जिसे तुम बड़ी देर से देख रहे हो, अपने घर लिवा जाने की बड़ी उत्कण्ठा है ! क्षमा करना, मैं अविश्वासी हो गया हूँ न ! क्यों, जानते हो ? जब कुलियों के लिए इसी सीली, गन्दी और दुर्गन्धमयी भूमि में एक सहानुभूति उत्पन्न हुई थी, तब मुझे यह कटु अनुभव हुआ था कि वह सहानुभूति भी चिरायँध से खाली न थी। मुझे एक सहायक मिले थे और मैं यहाँ से थोड़ी दूर पर उनके घर रहने लगा था। नीरा से अब न रहा गया। वह बोल उठी-बाबा, चुप न रहोगे, खाँसी
आने लगेगी।
ठहर नीरा ! हाँ तो महाशय जी, मैं उनके घर रहने लगा था और उन्होंने मेरा आतिथ्य साधारणतः अच्छा ही किया। एक ऐसी ही काल रात थी। बिजली बादलों में चमक रही थी और मैं पेट भर कर उस ठण्डी रात में सुख की झपकी लेने लगा था। इस बात को बरसों हुए; तो भी मुझे ठीक स्मरण है कि मैं जैसे भयानक सपना देखता हुआ चौंक उठा। नीरा चिल्ला रही थी ! क्यों नीरा ?
अब नीरा हताश हो गई थी और उसने बूढ़े को रोकने का प्रयत्न छोड़
दिया था। वह एकटक बूढ़े का मुँह देख रही थी।
बुड्ढे ने फिर कहना प्रारम्भ किया-हाँ, तो नीरा चिल्ला रही थी। मैं उठकर देखता हूँ, तो मेरे वह परम सहायक महाशय इसी नीरा को दोनों हाथों से पकड़कर घसीट रहे थे और यह बेचारी छूटने का व्यर्थ प्रयत्न कर रही थी। मैंने अपने दोनों दुर्बल हाथों को उठाकर उस नीच उपकारी के ऊपर दे मारा। वह नीरा को छोड़कर, ‘निकल मेरे घर से’ कहता हुआ मेरा अकिंचन सामान बाहर फेंकने लगा। बाहर ओलों-सी बूँदें पड़ रही थीं और बिजली कौंधती थी। मैं नीरा को लिए सर्दी से दाँत किटकिटाता हुआ एक ठूठे वृक्ष के नीचे रात-भर बैठा रहा। उस समय वह मेरा ऐश्वर्यशाली सहायक बिजली के लम्पों की गर्मी में मुलायम गद्दे पर सुख की नींद सो रहा था। यद्यपि मैं उसे लौटकर देखने नहीं गया, तो भी मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ, कि उसके सुख में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित करने का दण्ड देने के लिए भगवान् का न्याय अपने भीषण रूप में नहीं प्रकट हुआ। मैं रोता था-पुकारता था; किन्तु वहाँ सुनता कौन है!
तुम्हारा बदला लेने के लिए भगवान् नहीं आये, इसीलिए तुम अविश्वास करने लगे ! लेखकों की कल्पना का साहित्यिक न्याय तुम सर्वत्र प्रत्यक्ष देखना चाहते हो न ! निवास ने तत्परता से कहा ।
भी ।
क्यों न मैं ऐसा चाहता ? क्या मुझे इतना भी अधिकार न था? तुम समाचार-पत्र पढ़ते हो न!
अवश्य ।
तो उसमें कहानियाँ भी कभी-कभी पढ़ लेते होंगे और उनकी आलोचनाएँ
हाँ, तो फिर !
जैसे एक साधारण आलोचक प्रत्येक लेखक से अपने मन की कहानी कहलाना चाहता है और हठ करता है, कि नहीं यहाँ तो ऐसा नहीं होना चाहिये था; ठीक उसी तरह तुम सृष्टिकर्त्ता से अपने जीवन की घटनावली अपने मनोनुकूल सही कराना चाहते हो। महाशय ! मैं भी इसका अनुभव करता हूँ, कि सर्वत्र यदि पापों का भीषण दण्ड तत्काल ही मिल जाया करता, तो यह सृष्टि पाप करना छोड़ देती। किन्तु वैसा नहीं हुआ। उलटे यह एक व्यापक और भयानक मनोवृत्ति बन गई है, कि मेरे कष्टों का कारण कोई दूसरा है। इस तरह मनुष्य अपने कर्मों को सरलता से भूल सकता है। क्या तुमने कभी अपने अपराधों पर विचार किया है ?
निवास बड़े वेग से बोल रहा था। बुड्ढा न जाने क्यों काँप उठा। साइकिल का तीव्र आलोक उसके विकृत मुख पर पड़ रहा था। बुड्ढे का सिर धीरे-धीरे नीचे झुकने लगा। नीरा चौंक कर उठी और एक फटा-सा कम्बल उस बुड्ढे को ओढ़ाने लगी। सहसा बुड्ढे ने सिर उठाकर कहा- मैं इसे मान लेता हूँ कि आपके पास बड़ी अच्छी युक्तियाँ हैं और उनके द्वारा मेरी वर्तमान दशा का कारण आप मुझे ही प्रमाणित कर सकते हैं। किन्तु वृक्ष के नीचे पुआल से ढँकी हुई मेरी झोंपड़ी को और उसमें पड़े हुए अनाहार, सर्दी और रोगों से जीर्ण अभागे को मेरा ही भ्रम बताकर आप किसी बड़े भारी सत्य का आविष्कार कर मुझ रहे हैं, तो कीजिए। जाइए, मुझे क्षमा कीजिए ।
देवनिवास कुछ बोलने ही वाला था, कि नीरा ने दृढ़ता से कहा- आप लोग क्यों बाबा को तंग कर रहे हैं ? अब उन्हें सोने दीजिए।
निवास ने देखा, कि नीरा के मुख पर आत्मनिर्भरता और संतोष की गम्भीर शांति है। स्त्रियों का हृदय अभिलाषाओं का, संसार के सुखों का क्रीडास्थल है; किन्तु नीरा का हृदय, नीरा का मस्तिष्क इस किशोर-अवस्था में ही, कितना उदासीन और शान्त है ! वह मन-ही-मन नीरा के सामने प्रणत हुआ। दोनों मित्र उस झोंपड़ी से निकले। रात अधिक बीत चली थी। वे
कलकत्ता महानगरी की धनी बस्ती में धीरे-धीरे साइकिल चलाते हुए घुसे। दोनों
का हृदय भारी था ।
चुप देवनिवास का मित्र कच्चा नागरिक नहीं था । उसको अपने आँकड़ों का और उनके उपयोग पर पूरा विश्वास था। वह सुख और दुःख, दरिद्रता और विभव, कटुता और मधुरता की परीक्षा करता। जो उसके काम के होते, उन्हें सम्हाल लेता; फिर अपने मार्ग पर चल देता। सार्वजनिक जीवन का ढोंग रचने में वह पूरा खिलाड़ी था । देवनिवास के आतिथ्य का उपभोग करके अपने लिए कुछ मसाला जुटाकर वह चला गया।
किन्तु निवास की आंखों में, उस रात्रि के बूढ़े की झोंपड़ी का दृश्य, अपनी छाया ढालता ही रहा। एक सप्ताह बीतने पर वह फिर उसी ओर चला। झोंपड़ी में बुड्ढा पुआल पर पड़ा था। उसकी आँखें कुछ बड़ी हो गई थीं, ज्वर से लाल थीं। निवास को देखते ही एक रुग्ण हँसी उसके मुँह पर दिखाई दी। उसने धीरे से पूछा-बाबूजी, आज फिर ।
नहीं, मैं वाद-विवाद करने नहीं आया हूँ। तुम क्या बीमार हो ? हाँ, बीमार हूँ बाबूजी, और यह आपकी कृपा है !
मेरी ?
हाँ, उसी दिन से आपकी बातें मेरे सिर में चक्कर काटने लगी हैं। मैं ईश्वर पर विश्वास करने की बात सोचने लगा हूँ, बैठ जाइए, सुनिए ।
निवास बैठ गया था। बुड्ढे ने फिर कहना आरम्भ किया-मैं हिन्दू हूँ । कुछ सामान्य पूजा-पाठ का प्रभाव मेरे हृदय पर पड़ता रहा, जिन्हें मैं बाल्यकाल में अपने घर पर पर्वों और उत्सवों पर देख चुका था। मुझे ईश्वर के बारे में कभी कुछ बताया नहीं गया। अच्छा, जाने दीजिए, वह मेरी लम्बी कहानी है, मेरे जीवन की संसार से झगड़ते रहने की कथा है। अपनी घोर आवश्यकताओं से लड़ता-झगड़ता मैं कुली बनकर ‘मोरिशस’ पहुँचा। वहाँ ‘कुलसम’ से, नीरा की माँ की, मुझसे भेंट हो गई। मेरा–उसका ब्याह हो गया। आप हँसिये मत, कुलियों के लिए वहाँ किसी काजी या पुरोहित की उतनी आवश्यकता नहीं। ‘कुलसम’ मेरा घर बसाया।
ने
पहले वह चाहे जैसी रही, किन्तु मेरे साथ सम्बन्ध होने के बाद से आजीवन वह एक साध्वी गृहिणी बनी रहीं। कभी-कभी वह अपने ढंग पर ईश्वर का विचार करती और मुझे भी इसके लिए प्रेरित करती; किन्तु मेरे मन में जितना ‘कुलसम’ के प्रति आकर्षण था, उतना ही उसके ईश्वर-सम्बन्धी विचारों से विद्रोह। मैं ‘कुलसम’ के ईश्वर को तो कदापि नहीं समझ सका। मैं पुरुष होने की धारणा से यह तो सोचता था, कि ‘कुलसम’ वैसा ही ईश्वर माने, जैसा उसे मैं
समझ सकूँ और वह मेरा ईश्वर हिन्दू हो ! क्योंकि मैं सब छोड़ सकता था, लेकिन हिन्दू होने का विचार मेरे मन में दृढ़ता से जम गया था, तो भी समझदार ‘कुलसम’ के सामने ईश्वर की कल्पना अपने ढंग की, उपस्थित करने का मेरे पास कोई साधन न था। मेरे मन ने ढोंग किया, कि मैं नास्तिक हो जाऊँ । जब कभी ऐसा अवसर आता, मैं ‘कुलसम’ के विचारों की खिल्ली उड़ाता हुआ हँसकर कह देता-‘तो मेरे लिए तुम्हीं ईश्वर हो, खुदा हो, तुमहीं सब कुछ हो।’ वह मुझे चापलूसी करते हुए देख कर हँस तो देती थी; किन्तु उसका रोआँ-रोआँ रोने
लगता ।
मैं अपनी गाढी कमाई के रुपयों को शराब के प्याले में गलाकर मस्त रहता ! मेरे लिए वह भी कोई विशेष बात न थी, न तो मेरे लिए नास्तिक बनने में ही कोई विशेषता थी। धीरे-धीरे मैं उच्छृंखल हो गया। कुलसम रोती, बिलखती और मुझे समझाती; किन्तु मुझे ये सब बातें व्यर्थ की सी जान पड़तीं। मैं अधिक अविचारी हो उठा। मेरे जीवन का वह भयानक परिवर्तन बड़े वेग से आरम्भ हुआ। कुलसम उस कष्ट को सहन करने के लिए जीवित न रह सकी। उस दिन जब गोली चली थी, तब कुलसम के वहाँ जाने की आवश्यकता न थी । मैं सच कहता हूँ बाबूजी, वह आत्महत्या करने का उसका एक नया ढंग था । मुझे विश्वास होता है कि मैं ही इसका कारण था। इसके बाद मेरी वह सब उद्दण्डता तो नष्ट हो गई, जीवन की पूँजी जो मेरा निज का अभिमान था-वह भी चूर-चूर हो गया था। मैं नीरा को लेकर भारत के लिए चल पड़ा। तब तक तो मैं ईश्वर के सम्बन्ध में एक उदासीन नास्तिक था; किन्तु इस दुःख ने मुझे विद्रोही बना दिया। मैं अपने कष्टों का कारण ईश्वर को ही समझने लगा और मेरे मन में यह बात जम गई कि यह मुझे दण्ड दिया गया है।
‘बुड्ढा व्याकुल हो उठा था। उसका दम फूलने लगा, खाँसी आने लगी । नीरा मिट्टी के घड़े में जल लिए हुए झोंपड़ी में आई। उसने देवनिवास को और अपने पिता को अन्वेषक दृष्टि से देखा। यह समझ लेने पर कि दोनों में से किसी
के
मुख पर कटुता नहीं है, वह प्रकृतिस्थ हुई। धीरे-धीरे पिता का सिर सहलाते हुए उसने पूछा-बाबा, लावा ले आई हूँ, कुछ खा लो।
बुड्ढे ने कहा-ठहरो बेटी ! फिर निवास की ओर देखकर कहने लगा-बाबूजी, उस दिन भी जब नीरा के लिए मैंने भगवान को पुकारा था, तब उसी कटुता से। सम्भव है, इसीलिए वे न आए हों। आज कई दिनों से मैं भगवान को समझाने की चेष्टा कर रहा हूँ। नीरा के लिए मुझे बड़ी चिन्ता हो रही है। वह क्या करेगी ? किसी अत्याचारी के हाथ पड़कर नष्ट तो न हो जायेगी ?
निवास
निवास कुछ बोलने ही को था, कि नीरा कह उठी-बाबा, तुम मेरी चिन्ता न करो, भगवान मेरी रक्षा करेंगे। निवास की अन्तरात्मा पुलकित हो उठी। बुड्ढे ने कहा-करेंगे बेटी ? उसके मुख पर एक व्याकुल प्रसन्नता झलक उठी।
निवास ने बुढ़े की ओर देखकर विनीत स्वर में कहा-मैं नीरा से ब्याह करने के लिए प्रस्तुत हूँ। यदि तुम्हें ।
बूढ़े को अब की खाँसी के साथ ढेर-सा रक्त गिरा, तो भी उसके पर सन्तोष और विश्वास की प्रसन्न-लीला खेलने लगी। उसने अपने दोनों हाथ निवास और नीरा पर फैला कर रखते हुए कहा-हे मेरे भगवान !
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