अकेली

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सोमा बुआ बुढ़िया हैं ।
सोमा बुआ परित्यक्त्ता हैं ।
सोमा बुआ अकेली हैं ।
सोमा बुआ का जवान बेटा क्या जाता रहा, उनकी अपनी जवानी चली गई । पति को पुत्र-वियोग का ऐसा सदमा लगा कि पत्नी, घर-बार तजकर तीरथवासी हुए और परिवार में कोई ऐसा सदस्य था नहीं जो उनके एकाकीपन को दूर करता । पिछले बीस वर्षों से उनके जीवन की इस एक-रसता में किसी प्रकार का कोई व्यवधान उपस्थित नहीं हुआ, कोई परिवर्तन नहीं आया । यों हर साल एक महीने के लिए उनके पति उनके पास आकर रहते थे, पर कभी उन्होंने पति की प्रतीक्षा नहीं की, उनकी राह में आँखें नहीं बिछाईं । जब तक पति रहते उनका मन और भी मुरझाया हुआ रहता, क्योंकि पति के स्नेहहीन व्यवहार का अंकश उनके रोजमर्रा के जीवन की अबाध गति से बहती स्वच्छन्द धारा को कठिन कर देता । उस समय उनका घूमना-फिरना, मिलना-जुलना बन्द हो जाता और संन्यासी जी महाराज से यह भी नहीं होता कि दो मीठे बोल बोलकर सोमा बुआ को एक ऐसा सम्बल ही पकड़ा दें, जिसका आसरा लेकर वह उनके वियोग के ग्यारह महीने काट दें ।

अकेली

इस स्थिति में बुआ को अपनी जिन्दगी पास-पड़ोस वालों के भरोसे ही काटनी पड़ती थी । किसी के घर मुण्डन हो, छठी हो, जनेऊ हो, शादी हो या गमी, बुआ पहुँच जाती और फिर छाती फाड़कर काम करतीं. मानो वे दूसरे के घर में नहीं अपने ही घर में काम कर रही हो ।
आजकल सोमा बुआ के पति आए हुए हैं, और अभी अभी कुछ कहा-सुनी होकर चुकी है । बुआ आंगन में बैठी धूप खा रही हैं, पास रखी कटोरी से तेल लेकर हाथों में मल रही हैं और बड़बड़ा रही हैं । इस एक महीने में अन्य अवयवों के शिथिल हो जाने के कारण उनकी जीभ ही सबसे अधिक सजीव और सक्रिय हो उठी है । तभी हाथ में एक फटी साड़ी और पापड़ लेकर ऊपर से राधा भाभी उतरी ।
“क्या हो गया बुआ, क्यों बड़बड़ा रही हो? फिर संन्यासी जी महाराज ने कुछ कह दिया क्या?”


“अरे मैं कहीं चली जाऊं सो ही इन्हें नहीं सुहाता । कल चौक वाले किशोरीलाल के बेटे का मुण्डन था, सारी बिरादरी का न्योता था । मैं तो जानती थी कि ये पैसे का गरूर है कि मुण्डन पर भी सारी बिरादरी को न्योता है, पर काम उन नई-नवेली बहुओं से संभलेगा नहीं, सो जल्दी ही चली गई । हुआ भी वही ।” और सरककर बुआ ने राधा के हाथ से पापड़ लेकर सुखाने शुरू कर दिए।” एक काम गत से नहीं हो रहा था । अब घर में कोई बड़ा-बूढा हो तो बतावे, या कभी किया हो तो जाने । गीतवाली औरतें मुण्डन पर बन्ना-बन्नी गा रही थीं, मेरा तो हंसते-हंसते पेट फूल गया ।” और उसकी याद से ही कुछ देर पहले का दुःख और आक्रोश धुल गया । अपने सहज स्वाभाविक रूप में वे कहने लगी, “भट्ठी पर देखों तो अजब तमाशा- समोसे कच्चे ही उतार दिए और इतने बना दिए कि दो बार खिला दो, और गुलाब जामुन इतने कम कि एक पंगत में भी पूरे न पड़ें । उसी समय मैदा सान कर नये गुलाब जामुन बनाए ।
दोनों बहुएँ और किशोरीलाल तो बिचारे इतना जस मान रहे थे कि क्या बताऊ? कहने लगे, “अम्मा, तुम न होती तो आज भद्द उड़ जाती । अम्मा. तमने लाज रख ली ।” मैंने तो कह दिया कि, “अरे अपने ही काम नहीं आवेंगे तो कोई बाहर से तो आवेगा नहीं । ये तो आजकल इनका रोटी-पानी का काम रहता है. नहीं तो सवेरे से ही चली आती ।”

“तो संन्यासी महाराज क्यों बिगड पडे? उन्हें तुम्हारा आना-जाना अच्छा नहीं लगता बुआ ।”
“यों तो मैं कहीं आऊं जाऊं सो ही उन्हें नहीं सुहाता, और फिर कल किशोरी के यहाँ से बुलावा नहीं आया। अरे, मैं तो कहूँ कि घरवालों का कैसा बुलावा? वे लोग तो मुझे कम नहीं समझते, नहीं तो कौन भला या भट्ठी और भण्डार-घर सौंप दें? पर उन्हें अब कौन समझाये। कहने लगे ‘तू जबरदस्ती दूसरों के घर में टाँग अड़ाती फिरती है। और एकाएक उन्हें उस क्रोधमरी वाणी और कटु वचनों का स्मरण हो आया जिनकी बौछार कुछ देर पहले ही उन पर होकर चुकी थी । याद आते ही फिर उनके आंसू बह चले ।
“अरे रोती क्यों हो बुआ, कहना-सुनना तो चलता ही रहता है । संन्यासी जी महाराज एक महीने को तो आकर रहते हैं, सुन लिया करो, और क्या?”
“सुनने को तो सुनती ही है, पर एक महीना तो आते हैं तो भीकभी मीठेबोल नहीं बोलते । मेरा आना-जाना इन्हें सुहाता तू ही बता राधा, ये तो साल में ग्यारह महीने हरिद्वार रहते हैं । इन्हें तो नात-रिश्ते वालों से कुछ लेना-देना नहीं, पर मुझे, निभाना पड़ता है । सब तोड़-ताड कर बैठ जाऊं तो कैसे चले ।
मैं तो इनसे कहती है कि जब पल्ला पकड़ा है तो अन्त समय में भी साथ ही दो, सो इनसे होता नहीं
सारा घरम-करम यही करे और मैं अकेली पढ़ी-पडी यहाँ इनके नाम को रोया करू , घर से कहीं
आना जाना वह भी इनसे बर्दाश्त नहीं होता” और बुआ फूट-फूटकर रो पड़ी । राधा ने आश्वासन देते हुए कहा, “रोओ नहीं दुआ | अरे वे तो इसलिए नाराज हुए कि बिना दुलाए तुम चली गई ।
“बेचारे इतने हंगामें में बुलाना भूल गए तो मैं भी मोन करके बैट जाती? फिर घरवालों को कैसा
बुलाना ? मैं तो अपनेपन की बात जानती है । कोर्ट प्रेम नहीं रखे तो दस बुलावे पर नहीं जाऊं । मेरा अपना बेटा होता और उसके घर काम होता तो क्या मैं बुलावे के भरोसे बैठी रहती । मेरे लिए जैसा हरख वैसा किशोरीलाल आज हर नहीं है इसी से दूसरों को देख-देखकर मन भरमाती रहती हैं और वे हिचकिया लेने लगी ।
सूखे पापडों को बटोरते-बटोरते स्वर को भरसक कोमल बनाकर या ने कहा, “तुम भी बुआ बात को कहां से कहा ले गईरला अब चुप होओ, पापड मन कर लाती हु तब खाकर बताना कैसा है? और वह साड़ी को समेट कर ऊपर चढ़ गई ।
कोई सप्ताह-भर बाद बुआ बड़े प्रसन्न मन से आई और संन्यासी जी से बोली सुनते हो, देवर जी के सुसराल वालों के किसी लड़की का सम्बन्ध भागीरथ जी के यहाँ किया है । वे सब लोग यहाँ आकर ब्याह कर रहे हैं । देवरजी के बाद तो उन लोगों से कोई सम्बन्ध ही नहीं रहा, फिर भी है तो समधी ही ।
वे तो तुमको भी बुलाए बिना नहीं मानेंगे । समधी को आखिर कैसे छोड़ सकते हैं? और बुआ पुलकित होकर हँस पड़ी । संन्यासी जी की मौन उपेक्षा से उनके मन को ठेस तो पहुँची फिर भी वे प्रसन्न थी । इधर-उधर जाकर वे इस विवाह की प्रगति की खबरें लाती । आखिर एक दिन वे यह भी सुन आईं कि उनके समधी यहाँ आ गए । जोर-शोर से तैयारियां हो रही हैं । सारी बिरादरी को दावत दी जायेगी-खूब रौनक होने वाली है । दोनों ही पैसे वाले ठहरे ।

“क्या जानें हमारे घर को बुलावा आएगा या नहीं? देवर जी को मरे पच्चीस बरस हो गए, उसके बाद से तो कोई सम्बन्ध ही नहीं रखा । रखे भी कौन? यह काम तो मरदों का होता है, मैं तो मरदवाली होकर भी बेमरद की हूं । और एक ठण्डी सांस उनके दिल से निकल गई ।
“अरे वाह बुआ । तुम्हारा नाम कैसे नहीं हो सकता । तुम तो समधिन ठहरी । सम्बन्ध न रहे, कोई रिश्ता थोड़े ही टूट जाता है ।” दाल पीसती हुई घर की बड़ी बहू बोली ।
“है, बुआ नाम है । मैं तो सारी लिस्ट देखकर आई हूँ ।” विधवा ननद बोली । बैठे ही बैठे एकदम आगे सरककर बुआ ने बड़े उत्साह से पूछा, “तू अपनी आंखों से देखकर आई है नाम? नाम तो होना ही चाहिए । पर मैंने सोचा कि क्या जाने आजकल के फैशन में पुराने सम्बन्धियों को बुलाना हो, न हो ।” और बुआ बिना दो पल भी रुके वहां से चल पड़ी । अपने घर जाकर सीधे राधा भाभी के कमरे में चढ़ीं, “क्यों री राधा, तू तो जानती है कि नई फैशन में लड़की की शादी में क्या दिया जावे है? समधियों का मामला ठहरा, सो भी पैसे वाले । खाली हाथ जाऊंगी तो अच्छा नहीं लगेगा । मैं तो पुराने जमाने की ठहरी, तू ही बता दे, क्या दूं? अब कुछ बनने का समय तो रहा नहीं, दो दिन बाकी हैं, सो कुछ बना-बनाया ही खरीद लाना ।”
“क्या देना चाहती हो अम्मा, जेवर कपड़ा या शृंगारदान या कोई और चाँदी की चीजें?”
“मैं तो कुछ भी नहीं समझू री । जो कुछ पास है तुझे लाकर दे देती हूं, जो तू ठीक समझे ले आना, बस भद्द नहीं उड़नी चाहिए । अच्छा देखू पहले कि रुपये कितने हैं?” और वे डगमगाते कदमों से नीचे आईं । दो-तीन कपड़ों की गठरियां हटाकर एक छोटा सा बक्स निकाला । उसका ताला खोला । इधर-उधर करके एक छोटी सी डिबिया निकाली । बड़े जतन से उसे खोला उसमें सात रुपये और कुछ रेजगारी पड़ी थी और एक अंगूठी । बुआ का अनुमान था कि रुपये कुछ ज्यादा होंगे, पर जब सात ही रुपये निकले तो सोच में पड़ गई । रईस समधियों क्या के घर में तो इतने से रुपयों से तो बिन्दी भी नहीं लगेगी । उनकी नजर अंगूठी पर गई ये उनके मृत पुत्र की एकमात्र निशानी बची थी , बड़े बड़े आर्थिक संकट के समय भी इसका मोह नहीं छोड़ पाई थी
आज भी उठते समय एक बार हाथ कांपे थे पर उन्होंने उसे उठाया और पाँच रूपये ले लिए
क्से को बध किया ओर ऊपर की ओर चली , इस बार मन शिथिल हो गया और परो की गति मंद,
ऊपर जाकर बोली पैसे तो नहीं निकले मेरे कों मरद कमाने बैठा है ।”
राधा बोली क्या करू बुआ मेरा भी हाथ तंग है नहीं तो मैं ही दे देती, पर तुम देने के चक्कर में पड़ती ही क्यों हो आजकल तो देने लेने का रिवाज ही उट गया है ।”
“नहीं री राधा, समधियों का मामला टहरा, पच्चीस बरस हो गए तो भी नहीं भूले, और मैं खाली हाथ जाली नहीं-नहीं. इससे तो नहीं जो सो ही अच्छा है ।”
“तो जाओ ही मत । चलो छटटी हुई, इतने लोगों में किस पता लगेगा कि आई या नहीं ।” राधा ने सारी समस्या का सीधा-सा हल बताते हुए कहा ।
“बड़ा बुरा मानेंगे । सारे शहर के लोग जायेंगे और मैं समधिन होकर नहीं जाऊंगी तो यही समझेंगे कि देवर जी मरे तो सम्बन्ध भी तोड़ लिया । नहीं-नहीं, तू यह अंगठी बेच ही दे ।” और उन्होंने आँचल की गांट खोलकर एक पुराने जमाने की अंगठी राधा के हाथ पर रख दी । फिर बड़ी मिन्नत के स्वर में बोली, तू तो बाजार जाती है राधा, इसे बेच देना और जो कुछ टीक समझे खरीद लेना । बस, शोभा रह जाये । इतना ख्याल रखना ।


गली में बुआ ने चूड़ीवाले की आवाज सुनी तो एकाएक ही उनकी नजर अपने हाथ की भटी, मटमैली चूड़ियों पर जाकर टिक गई। कल समधियों के यहाँ जाना है, जेवर नहीं है तो कम से कम काँच की चडी तो अच्छी पहन लें । पर एक अब्यक्त लाज ने उनके कदमों को रोक दिया कोई देख लेगा तो । लेकिन दूसरे क्षण ही अपनी इस कमजोरी पर विजय पाती-सी पीछे के दरवाजे पर पहुंच गई और एक रुपया कलदार खर्च करके लाल हरी लाल चूड़ी के बन्द पहन लिए। पर सारे दिन हाथों को साड़ी के आंचल से ढके-ढके फिरती रही ।
शाम को राधा भाभी ने बुआ को चाँदी की एक सिन्दूरदानी, एक साडी और एक ब्लाऊज का कपडा लाकर दादया। सब कुछदख पाकर वादी प्रसन्न हई और यह सोच-सोचकर कि जब वे ये सब दे देगी तो उनकी समधिन पुरानी बातों की दुहाई दे-देकर उनकी निलनसारिता की कितनी प्रशंसा करेगी उनका मन पुलकित होने लगा । अंगूठी बेचने का गम भी जाता रहा । पास वाले बनिये के यहां से एक आने का पीला रंग लाकर रात में उन्होंने साड़ी रंगी । शादी में सफेद साड़ी पहनकर जाना क्या अच्छा लगेगा? रात में सोई तो मन कल की ओर दौड़ रहा था ।
दूसरे दिन नौ बजते-बजते खाने का काम समाप्त कर डाला । अपनी रंगी हुई साड़ी देखी तो कुछ जंची नहीं । फिर ऊपर राधा के पास पहुँची, “क्यों राधा, तू तो रंगी साड़ी पहिनती है तो बड़ी आब रहती है, चमक रहती है, इसमें तो चमक आई नहीं?”
“तुमने कलफ जो नहीं लगाया अम्मा, थोड़ा-सा मांड दे देती तो अच्छा रहता । अभी दे लो, ठीक हो जाएगी । बुलावा कब का है?”
“अरे नये फैशनवालों की मत पूछो, ऐन मौके पर बुलावा आता है। पाँच बजे का मुहरत है, दिन में कभी भी आ जावेगा।”
राधा भाभी मन ही मन मुस्करा उठी ।
बुआ ने साड़ी में मांड लगाकर सुखा दिया । फिर एक नई थाली निकाली, अपनी जवानी के दिनों में बुना हुआ क्रोशिये का एक छोटा-सा मेजपोश निकाला । थाली में साड़ी, सिन्दूरदानी, एक नारियल और थोड़े-से बतासे सजाए, फिर जाकर राधा को दिखाया । संन्यासी महाराज सवेरे से इस आयोजन को देख रहे थे और उन्होंने कल से लेकर आज तक कोई पच्चीस बार चेतावनी दे दी थी कि यदि कोई बुलाने न आए तो चली मत जाना, नहीं तो ठीक नहीं होगा । हर बार बुआ ने बड़े ही विश्वास के साथ कहा, “मुझे क्या बावली ही समझ एखा है जो बिना बुलाए चली जाऊंगी? अरे वह पड़ोसवालों की नन्दा अपनी आंखों से बुलावे की लिस्ट में नाम देखकर आई है । और बुलावेंगे क्यों नहीं? शहरवालों को बुलावेंगे और समधियों को नहीं बुलावेंगे क्या?”


तीन बजे के करीब बुआ को अनमने भाव से छत पर इधर-उधर घूमते । देख राधा भाभी ने आवाज लगाई, “गई नहीं बुआ?”
एकाएक चौंकते हुए बुआ ने पूछा, “कितने बज गए राधा?-क्या कहा, तीन? सरदी में तो दिन का पता ही नहीं लगता है । बजे तीन ही हैं और धूप सारी छत पर से ऐसे सिमट गई मानों शाम हो गई हो ।” फिर एकाएक जैसे ख्याल आया कि यह तो भाभी के प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ तो जरा ठण्डे स्वर में बोली, “मुहरत तो पाँच बजे का है । जाऊंगी तो चार तक जाऊंगी, अभी तो तीन ही बज हैं ।” बड़ी सावधानी से उन्होंने स्वर में लापरवाही का पुट दिया । बुआ छत पर से गली में नजर फैलाए खड़ी थीं, उनके पीछे ही रस्सी पर धोती फैली हुई थी, जिसमें कलफ लगा था और अभ्रक छिड़का हुआ था । रह रह कर धूप में चमक जाते थे ।
सात बजे के धुंधलके में राधा ने ऊपर से देखा तो छत की दीवार से सटी, गली की ओर मुंह किए एक छाया मूर्ति दिखाई दी । उसका मन भर आया । बिना कुछ पूछ इतना ही कहा, “बुआ सर्दी में खड़ी खड़ी यहां क्या कर रही हो? आज खाना नहीं बनेगा क्या, सात बज गए?”
जैसे एकाएक नींद में से जागते हुए बुआ ने पूछा, “क्या कहा, सात बज गए?” फिर जैसे अपने से ही बोलते हुए पूछा, “पर सात कैसे बज सकते हैं, मुहरत तो पांच बजे का था ।” और फिर एकाएक ही सारी स्थिति को समझते हुए, स्वर को भरसक संयत बनाकर बोली, “अरे खाने का क्या है, अभी बना लूंगी । दो जनों का तो खाना है, क्या खाना और क्या पकाना ।”
फिर उन्होंने सूखी साड़ी को उतारा । नीचे जाकर अच्छी तरह उसकी तह की धीरे-धीरे हाथों से चूड़ियां खोली, थाली में सजाया हुआ सारा सामान उठाया और सारी चीजें बड़े जतन से अपने एकमात्र सन्दूक में रख दीं । और फिर बड़े ही बुझे हुए दिल से अंगीठी जलाने लगी ।

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