हार की जीत।

हार की जीत

Haar ki jeet

(1)

माँ को अपने बेटे, साहूकार को अपने देनदार और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनन्द आता है वहीं आनन्द बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। यह घोड़ा बड़ा सुन्दर था, बड़ा बलवान था। इसके जोड़ का घोड़ा इलाके में न था! बाबा भारती उसे सुलतान कहकर पुकारते, अपने हाथ से खर-हरा करते, खुद दाना खिलाते, और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। ऐसी लगन, ऐसे प्यार, ऐसे स्नेह से कोई सच्चा प्रेमी अपने प्यारे को भी न चाहता होगा। उन्होंने अपना सब कुछ छोड़ दिया था- रुपया, माल, असबाब, जमीन, यहाँ तक कि उन्हें नागरिक जीवन से भी घृणा थी! अब आँव के बाहर एक छोटे से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। परन्तु सुलतान से बिछड़ने की वेदना उनके लिये असह्य थी। मैं इनके बिना नहीं रह सकूँगा, उन्हें ऐसी भ्रांति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, ऐसा चलता है जैसे मोर घन घटा को देखकर नाच रहा हो। गाँवों के लोग इस प्रेम को देख कर चकित थे, कभी-कभी कनखियों से इशारे भी करते थे, परन्तु बाबा भारती को इसकी परवाह न थी। जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आती ।

खड्गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे । होते-होते सुलतान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया।

बाबा भारती ने पूछा-खड्गसिंह! क्या हाल है? खड्गसिंह ने सिर झुका कर उत्तर दिया–आपकी दया है

“कहो, इधर कैसे आ गये?”

“सुलतान की चाह खींच लाई।”

“विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।” “मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।”

“उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी।”

“कहते हैं, देखने में भी बड़ा सुन्दर है।”

हार की जीत

“क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।”

“बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ

बाबा और खड्गसिंह दोनों अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया, घमंड से। खड्गसिंह ने घोड़ा देखा, आश्चर्य से । उसने सहस्रों घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था, सोचने लगा-भाग्य की बात है, ऐसा घोड़ा खड्गसिंह के पास होना चाहिए था, इस साधु को ऐसी चीजों से क्या लाभ! कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला-परन्तु बाबाजी! इसकी चाल न देखी तो क्या देखा?

(2)

हार की जीत

बाबाजी भी मनुष्य ही थे। अपनी वस्तु की प्रशंसा दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय भी अधीर हो गया। घोड़े को खोल कर बाहर लाये, और उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगे। एकाएक उचककर सवार हो गये। घोड़ा वायु-वेग से उड़ने लगा। उसकी चाल देखकर, उसकी गति देखकर, खड्गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाय, उस पर अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था, और आदमी थे! जाते-जाते उसने कहा-बाबाजी! मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा ।

बाबा भारती डर गये। उन्हें रात को नींद न आती थी । सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रतिक्षण खड्गसिंह का भय लगा रहता। परन्तु कई मास बीत गये, और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ लापरवाह हो गये। और इस भय को स्वप्न के भय की नांई मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुलतान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता! कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी रंग को; और मन में फूले न समाते थे।

सहसा एक ओर से आवाज आयी-ओ बाबा! इस कँगले की भी बात सुनते जाना ।

आवाज में करुणा थी। बाबा ने घोड़े को थाम लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है! बोले, क्यों, तुम्हें क्या कष्ट है? अपाहिज ने हाथ जोड़ कर कहा-बाबा! मैं दुखिया हूँ, मुझ पर दया करो। रामांवाला यहाँ से तीन मील है; मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा “वहाँ तुम्हारा कौन है?”

“दुर्गादत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।” बाबा भारती ने घोड़े से उतर कर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया,

और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे।

हार की जीत

सहसा उन्हें एक झटका लगा, और लगाम हाथ से छूट गयी। उनके  आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर बैठा घोड़े को दौड़ाये लिये जा रहा है (उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा  से मिली हुई चीख निकल गयी। यह अपाहिज खड्गसिंह डाकू था।

बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे, और इसके पश्चात् कुछ निश्चय

करके पूरे बल से चिल्ला कर बोले-जरा ठहर जाओ।

खड्गसिंह ने यह आवाज सुनकर घोड़ा रोक लिया, और उसकी गर्दन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा-बाबाजी! यह घोड़ा अब न दूँगा । “परन्तु एक बात सुनते जाओ।”

खड्गसिंह ठहर गया। बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा, जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है, और कहा-घोड़ा तुम्हारा हो चुका, मैं तुमसे वापस करने के लिए न कहूँगा, (परन्तु खड्गसिंह केवल एक प्रार्थना करता हूँ, उसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जायगा । “बाबाजी! आज्ञा दीजिये। मैं आपका दास हूँ: केवल यह घोड़ा न

दूँगा।”

“अब घोड़े का नाम न लो, मैं तुमसे इसके विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।”

खड्गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि मुझे इस घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परन्तु बाबा भारती ने स्वयं उससे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड्गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परन्तु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं, और पूछा-बाबाजी! इसमें आपको क्या डर है? सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया-लोगों को यदि इस घटना का पता लग गया, तो वे किसी गरीब पर विश्वास न करेंगे।

और यह कहते-कहते उन्होंने सुलतान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ •लिया, जैसे उनका उससे कभी कोई सम्बन्ध न था। बाबा भारती चले गये परन्तु उनके शब्द खड्गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था-कैसे ऊँच विचार हैं, कैसे पवित्र भाव हैं! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था; इसे देख कर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था, कहते थे, इसके बिना मैं रह न सकूँगा। इसकी रखवाली में वह कई रातें सोये नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे परन्तु आज उनके मुख पर दुःख की रेखा तक न दीख पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग गरीबों पर विश्वास करना न छोड़ दें। उन्होंने अपनी निज की हानि को मनुष्यत्व की हानि पर न्यौछावर कर दिया; ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं, देवता है

(3)

रात्रि के अंधकार में खड्गसिंह बाबा भारती के मन्दिर में पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था; आकाश पर तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंकते थे। मन्दिर के अन्दर कोई शब्द सुनायी न देता था। खड्गसिंह सुलतान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक किसी वियोगी की आँखों की तरह चौपट खुला था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परन्तु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था । हानि ने उन्हें हानि की तरह से बेपरवा कर दिया था। खड्गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बन्द कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे ।

अन्धकार में रात्रि ने तीसरा पहर समाप्त किया और चौथा पहर आरम्भ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात् इस प्रकार, जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर मुड़े। परन्तु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँवों को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रुक गये। • घोड़े ने स्वाभाविक मेधा से अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और जोर से हिनहिनाया।

बाबा भारती दौड़ते हुए अन्दर घुसे, और अपने घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे, जैसे बिछड़ा हुआ पिता चिरकाल के पश्चात् पुत्र से मिल कर रोता है। बार-बार उसकी पीठ पर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते और कहते थे-अब कोई गरीबों की सहायता से मुँह न मोड़ेगा।

थोड़ी देर बाद जब वे अस्तबल से बाहर निकले तो उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे, वे आँसू उसी भूमि पर, ठीक उसी जगह, गिर रहे थे जहाँ बाहर निकलने के बाद खड्गसिंह खड़ा होकर रोया था।

दोनों के आँसुओं का उसी भूमि की मिट्टी पर परस्पर मिलाप हो गया।

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