कौटिल्य का अर्थशास्त्र – अतीत एवं वर्तमान में प्रासंगिकता

कौटिल्य के अर्थशास्त्र का प्रभाव विचारकों तथा कवि मनिषियों पर भी रहा है इससे स्वत: सिद्ध होता है कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र की प्रासंगिकता जितनी अतीत में थी उतनी ही उसके बाद में और वर्तमानकाल तक रही है । कालिदास से लेकर याज्ञवल्क्य, विष्णुशर्मा, विशाखदत्त तथा बाणभट्ट प्रभृति महाकवियों नाटककारों गद्यकारों स्मृतिकारों ने कौटिल्य के अर्थशास्त्र का उल्लेख किया है अत: इसकी प्रासंगिकता तथा प्रभाव सर्वविदित रहा है । कौटिल्य के अर्थशास्त्र की प्रासंगिकता इसलिए भी बढ़ जाती है कि इसमें हम उन सिद्धान्तों तथा रचनाओं का भी समावेश पाते हैं जो सम्प्रति अनुपलब्ध हैं। यदि हम वर्तमान परिप्रक्ष्य में कौटिल्य के अर्थशास्त्र का चिन्तन करें तो यही तथ्य उभर कर सामने आएगा कि आज के समाज को जो मूलभूत आवश्यकताएं चाहिए उन सबकी परिकल्पना तो आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व ही आचार्य कौटिल्य ने कर दी थी । किसी भी कल्याणकारी तथा लोकतान्त्रिक समाज का अन्तिम उद्देश्य वहाँ की प्रजा ही खुशहाली तथा समृद्धि होता है । आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में इन सब समस्याओं से निपटने तथा इनकी पूर्ति का मूल मन्त्र पहले ही प्रस्तुत कर दिया था । अत: हम निर्विवाद रूप से यह कह सकते हैं कि कौटिल्य का अर्थशास्त्र हर काल में प्रासंगिक रहेगा तथा इसका महत्त्व सदा बना रहेगा

प्राचीन दरबार - कौटिल्य का अर्थशास्त्र

कौटिल्य का अर्थशास्त्र आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, व्यावहारिक तथा न्यायिक नियमो निर्देशों का अनुपम ग्रन्थ है । अर्थशास्त्र में राष्ट्र निर्माण एवं संगठन का ताना बाना अत्यन्त सहजता से बुना गया है कौटिल्य अर्थशास्त्र के महत्त्वपूर्ण एवं व्यापक विषय में से कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं का विमर्श विचारणीय है –
शासन – प्रशासन –
प्राचीन साहित्य में हमें दो प्रकार की राजतन्त्रात्मक शासन पद्धतियों के दर्शन होते हैं- नियन्त्रित एवं अनियन्त्रित। इन दोनों ही पद्धतियों के स्वामी राजा का यह दावा रहा है कि उसकी उत्पति दैवीय है । नियन्त्रण की दशा में वह राजा प्रजा की सहमति से जनता पर अधिकार करता था और दूसरी स्थिति में वह बलपूर्वक प्रजा को दबाता था। ये दोनों ही प्रकार की पद्धतियाँ वंशानुगत थी । अनियन्त्रित राज्य बलपूर्वक प्राप्त होता था इसका उल्लेख वैदिक साहित्य….2 में मिलता है । वैदिक ग्रन्थो मे हमें यह भी देखने को मिलता है कि -नियन्त्रित राजतन्त्र में राजा को चुना या स्वीकार किया जाता था……3 चूकीं राज्य का भार राजा पर होता था इसलिए वह स्वयंसिद्ध और आत्मनिर्भर होताथा। कौटिल्य ने इसका स्पष्ट उल्लेख भी किया है –
आत्मबलानुकूल्येन वा निषाहर्भागान् प्रविभज्य कार्याणि सेवेत।..
कदाचितश्चन्द्रगुप्त भी एक बार अपने परतन्त्र जीवन से इतना व्याकुल हो जाता है कि राजपाट छोड देने के लिए उत्तेजित हो उठता है राजनीति की दृष्टि से राज्य एक ऐसी पुनीत थाती है जो राजा को इसलिए सौपी जाती है वह प्रजा की सुख समृद्धि और कल्याण कामना के लिए सतत प्रयत्नशील बना रहे । प्रत्येक राज्याभिषेक के समय अभिषिक्त राजा को यह कहकर पुनीत थाती को सौपा जाता है कियह राष्ट्र तुम्हे सौपा जाता है। तुम इसके संचालन नियामक और उत्तर दायित्व के दृढ वहनकर्ता हो । यह राज्य तुम्हें कृषि के कल्याण सम्पन्नता प्रजा के पोषण के लिए दिया जाता है ।’….. महर्षि मनु ने भी माना है कि राजा का मुख्य कार्य प्रजा का रक्षण होता है । और इस हेतु स्वयं विधाता ने उसे शक्ति प्रदान की है । जैसे –
राजधमानप्रवक्ष्यामि यथावृतो भवेन्नृपः। संभवश्च यथा तस्य सिद्धिश्च परमा यथाः ।।……

शासन व्यवस्था के प्रसंग में कौटिल्य ने नगर की व्यवस्थापिका सभा का बहुत ही विस्तार से वर्णन किया है । कौटिल्य नगर की व्यवस्थापिका को सुचारू रूप से निर्वाहित करने के लिए उसे छह भागों में विभक्त किया है । प्रत्येक विभाग का संचालन पाँच सदस्यों के हाथों में होता था । इससे नगर की शासन व्यवस्था निर्बाध गति से संचालित होती रहती थी । एक विभाग का कार्य कारीगरों तथा कलाकारों की निगरानी करना था । दूसरे विभाग के पास विदेशी मामलों की देखरेख तथा विदेशों के साथ सम्बन्धों को मजबूती प्रदान करना था। तीसरा विभाग जनगणना, स्वास्थ्य चौथा मद्रा, विनिमय, माप-तौल देखना था । पाँचवा विभाग निर्मित वस्तुओं की देखरेख करता था तथा छठा विभाग कर वसूला का काम काज संभालता था ।

अर्थशास्त्र में वर्णित यह विकेन्द्रीकरण की शासनपद्धति वर्तमानकाल पर्ण प्रासंगिक है क्योकि वर्तमानकालीन प्रजातान्त्रिक शासनपद्धति भी इसी केन्द्रित शक्ति पर आधारित है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में धर्म और शासन प्रशासन सम्बन्धि अठारह विभागीय अध्यक्षों को तीन भागों…. में विभक्त किया है -प्रथम श्रेणी में मन्त्री पुरोहित सेनापति द्वितीय श्रेणी में दौवारिक आदि तथा तृतीय श्रेणी में प्रदेष्टा नायक पौर दण्डपाल और दुर्गपाल आदि को रखा गया है । कौटिल्य के अर्थशास्त्र को आधार बनाकर डा. जायसवाल ने अठारह प्रकार के पदाधिकारियों का वर्णन किया है।….. पद वेतन और सम्मान की दृष्टि से समस्त प्रशासनिक अधिकारियों को क्रमानुसार विभक्त करना आचार्य कौटिल्य की अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि का ही परिणाम था ।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र

विदेश नीति –
आचार्य कौटिल्य द्वारा प्रतिपादित 150 विषयों में कोई विषय ऐसा नही है जो वर्तमानकाल में प्रासंगिक नही है । आज के आपा-धापी के युग में जहाँ प्रत्येक राष्ट्र एक दूसरे को दबाने के सपने देखता है वहाँ यदि कौटिल्य की विदेश नीति का पालन किया जाए तो एक स्वतन्त्र राष्ट्र विदेशी राष्ट्रों के साथ सम्बन्धो में प्रगाढ़ता ला सकता है । कौटिल्य ने स्पष्ट उल्लेख किया है कि एक महत्त्वकांक्षी राजा को चाहिए कि वह अपनी शक्तियों के साथ षड्गुणो का उपयोग करे । जैसे –
षाड्गुण्यमेवैतदवस्थाभेदादिति कौटिल्यः । तत्र पणबन्धः सन्धि, अपकारो विग्रह:, उपेक्षणमासनम्, अभ्युच्चयो यानं, परार्पणं संश्रयं, सन्धिविग्रहोपादानं द्वैधिभावंसम्पद्यत् इति ।
कौटिल्य द्वारा निर्देशित यह विदेश नीति आज किसी भी प्रकार से ग्राह्य है । कौटिल्य ने राजा के मण्डल सिद्धान्त को शक्ति सिद्धान्त तथा षाडगुणो को अनिवार्य सम्बन्ध के रूप मे देखा है जो आज भी सर्वथा उपयोगी है । राजनीति के क्षेत्र में वर्तमान काल में राजदूत को जो महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है वह प्राचीनकाल में भी था। महर्षि मनु ने कहा है कि –
वह बहुश्रुत आकार तथा चेष्टाओ के विकार से हृदयस्थ भावों को पकड़ने वाला स्मृतिमान दर्शनीय दक्ष सत्कुलीन राजभक्त देशकाल का ज्ञाता पवित्र आचरण वाला वाग्मी और समस्त शास्त्रों का ज्ञाता होना चाहिए ।
रामायण में भी एक स्थान पर प्रसंग मिलता है कि-दूत चाहे साध हो या असाधू वह तो दूसरे का भेजा हुआ एवं दूसरे की बात को कहने वाला होता है। इसलिए दूत का वध सर्वथा निषिद्ध है । महाभारत में तो यहाँ तक कहा गया है कि – क्षात्रधर्मरत जो राजा सत्यवादी दूत का वध करता है उसके पितृगण भ्रूणहत्या के भागी होते है । अतः रामायण, महाभारत, धर्मशास्त्र और अन्य प्राचीन ग्रन्थों में राजदत को जो गौरवशाली सम्मान प्राप्त पद बताया है ठीक वैसे ही कौटिल्य ने भी अर्थशास्त्र में राजदूत को राजा का मुख माना है
दूतमुखा वै राजानरत्वं चान्ये च ।
अपने राष्ट में राजा जैसी व्यवस्था और नीति निर्धारित करता है वैसे ही पर राष्ट में यह कार्य राजदूत करता है । कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में निसृष्टार्थ, परिमितार्थ एवं ‘शासनहर आदि दूतों की तीन कोटियाँ बताई है तथा इन सभी का कार्य स्तर के अनुरूप भी दर्शाया है । इन तथ्यो से स्वत: ही स्पष्ट हो जाता है कि कौटिल्य के प्रबन्धन के नियम न सिर्फ तत्कालीन समय के लिए लाभदायक थे बल्कि वर्तमानकाल में भी पूर्ण प्रासंगिक है ।

गुप्तचर व्यवस्था –
कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में राजा की आँख कही जाने वाली गुप्तचर व्यवस्था को उत्तम प्रशासन के लिए अनिवार्य माना है । राज्य की सुव्यवस्था प्रजा की शान्ति आदि का सम्पूर्ण भार गुप्तचरों द्वारा संकलित आंकडों पर ही आधारित होता था अत: वास्तव में ही गुप्तचर राजा के चक्षु थे इसमें कोई अतिशयोक्ति नही है । कौटिल्य ने स्वीकार किया है कि एक राजा कितना सफल शासक है तथा उसकी प्रजा उसके बारे में क्या धारणा रखती है यह सब गुप्तचरो द्वारा जुटाई गई जानकारियो पर ही निर्भर था । राज्य की छोटी से छोटी ईकाई तक गुप्तचर व्यवस्था की पहुँच सरल हो इसी को ध्यान में रखकर आचार्य कौटिल्य ने गुप्तचरो को नौ भागो में विभक्त किया है । जैसे –
उपधाभिः शुद्धामात्यवर्गों गूढपुरूषानुत्पादयेत् ।
कापटिकोदास्थितगृहपतिवैदेहकतापसव्यन्जनान्सत्रितीक्ष्णरसदभिक्षुकीश्च ।
शासन व्यवस्था सुचारु हो और सुख सुविधाओं का लाभ सामान्य प्रजा तक पहुँचे इसी दूरदर्शी विचारधारा को आधार बनाकर आचार्य कौटिल्य ने समग्र राष्ट्र को दो भागो में विभक्त कर दिया पुर तथा जनपद । पुर के प्रमुख अधिकारी को नागरिक कहा जाता था जबकि जनपद का दायित्व समाहर्ता. पर होता था। कौटिल्य का इन विभिन्न पदो या विभिन्न इकाईयो में नगर या राष्ट को बांटने का उद्देश्यं अपनी सम्पूर्ण शासन व्यवस्था को सुदृढ बनाना था ।

इसी शासन व्यवस्था के मददीकरण के लिए नगर में प्रवेश करने वाले नवागन्तुकों की देख रेख, नगर रक्षको की व्यवस्था, सन्दिग्धों की निगरानी, अग्नि रक्षा व्यवस्था स्वास्थ्यलाभ आदि विभिन्न प्रकार के छोटे छोटे पदों तथा पदाधिकारियों का विधान भी कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलता है कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में जनपद की सबसे छोटी इकाई ग्राम से लेकर संग्रहण, खार्वटक, द्रोणमुख तथा अन्त में राष्ट्र की परिकल्पना के पीछे एक निश्चित उद्देश्य निर्धारित किया था जिसके पीछे भी केवल राष्ट्र को सुदृढ करना और शासन-प्रशासन को सुचारु रूप से संचालित करना था इस तरह निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि आचार्य कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में प्रबन्धन और शासन व्यवस्था की जो झांकी तत्कालीन समय में प्रस्तुत की थी वह आज न सिर्फ भारत देश के लिए बल्कि सम्पूर्ण विश्व के लिए प्रेरणास्रोत और ग्राह्य है ।

विधि –
कौटिल्य का अर्थशास्त्र विधि की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है जो तत्कालीन समय के साथ साथ वर्तमानकाल में भी पूर्ण प्रासंगिक है । अर्थशास्त्र में विवादो के निर्णय के सन्दर्भ में जो कानून व्यवस्था का वर्णन और नियम मिलते है वे सम्पूर्ण देश और दुनिया के लिए मील का पत्थर साबित हो रहे है । कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में उन नियमों को न्यायसंगत नही माना जो छिपकर, घर के अन्दर एकांत में, रात में, जंगल में या छलकपटपूर्वक बनाए गए हों या फिर पक्षपातपूर्ण हों । कौटिल्य द्वारा बताए गए सम्पूर्ण नियम आज भी एक स्वस्थ समाज के लिए अनिवार्य है कौटिल्य की कानून व्यवस्था इतनी उच्चकोटि की थी कि यदि आज के भौतिकवादी युग में बिना किसी संशोधन के उनको लागू किया जाए तो एक स्वस्थ तथा सांस्कृतिक विरासत के धनी सभ्य समाज का निर्माण किया जा सकता है कौटिल्य स्वयं हमेशाराजनैतिक परिवेश में रहे इसलिए उनकी बुद्धि ने इन सूक्ष्म तत्वो को ढूंढ निकाला या फिर धीमतांकश्चित्विषयो नास्ति. इस सिद्धान्त को आधार बनाकर हम कहे कि कौटिल्य का अनुभवजन्य ज्ञान ही अर्थशास्त्र का कारण था । जो कुछ भी हो इतना तो अवश्य है कि कौटिल्य एक राजनीतिज्ञानविषयक निष्णान्त विद्वान थे ।’
सम्बन्धी नियम, ऋण एवं नियमो का उल्लेख है अर्थशास्त्र में विवाह सम्बन्धी नियम, दायभाग सम्बन्धी नियम धरोहर सम्बन्धी नियम तथा मजदूरी सम्बन्धी जिन नियमो का उल्लेख के नियमो का पालन आज भी एक स्वस्थ और सम्मानित शासन व्यवस्था को करता है जिसकी प्रासंगिकता अतीत से वर्तमान तक अक्षुण्ण बनी हई है ।

न्याय एवं दण्ड व्यवस्था –
प्राचीन भारत में न्याय का आधार धर्म रहा है। मनु …..’ तथा धर्मसत्रों में राजा को धर्म का ही अंग माना गया है । यह भी उल्लेख मिलता है कि राजा भले ही सर्वोच्च सत्ता थी परन्तु धर्म के विरूद्ध नियमों के निर्धारण या परिवर्तन का अधिकार राजा को नही था । क्योंकि धर्म का पालन राजा का प्रथम कर्त्तव्य था। मन ने भी कहा है –
वेदोऽखिलोधर्ममूलम् स्मृतिशीले च तद्विदाम् ।
आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च।।…
पौराणिक दृष्टान्तों से स्पष्ट संकेत मिलता है कि राजा भी निरंकुश नही था। कौटिल्य की यह अंकुषपूर्ण व्यवस्था आज भी पूर्ण प्रासंगिक है क्योकि निरंकुशता से धर्म की हानि होती है । राजा यद्यपि राज्य का स्वामी होता था किन्तु वह पौरजानपद की राष्ट संघटन की शक्ति के अधीन था। यहाँ तक की राजपरिवार के सदस्य स्वेच्छा से धन का उपभोग नही कर सकते थे बल्कि उन्हे वेतन मिलता था इस बात के संकेत स्वयं आचार्य कौटिल्य ने दिए है । जैसे –
ऋत्विगाचार्यमन्त्रिपुरोहितसेनापतियुवराजराजमातृरामहिश्योस्ष्टचत्वारिंषत्साहस्त्राः ।
राजा की स्थिति का उल्लेख करते हुए अत्यप्त सुन्दर शब्दों में कहा गया है राजा तो केवल राज्य रूपी वृक्ष की मूल है। मन्त्रिपरिषद उसका धड़ या स्कन्ध है । सेनापति उसकी शाखाए है । सैनिक उसके पल्लव है। प्रजा उसके पुष्प हैं । देश की सम्पन्नता उसके फल है और समस्त देश उसका बीज है । कौटिल्य के अनुसार न्याय की सम्पूर्ण सत्ता पुरोहितों के अधीन होती थी । कौटिल्य ने अर्थशास्त्र म यह स्पष्ट उल्लेख किया है कि न्याय व्यवस्था का सारा भार राज्य के अर्थशास्त्रविद तान सदस्यों और तीन अमात्यों पर होना चाहिए । कौटिल्य अर्थशास्त्र का यह तथ्य उभरकर सामने आया है कि दण्डनीति एवं शासनसम्बन्धि कार्यो का उल्लेख भी अर्थशास्त्र के लिए होता था किन्तु अर्थशास्त्र से केवल जनपद सम्बन्धि कार्यो का ही विधान होने लगा था । अर्थ की व्याख्या करते हुए कौटिल्य ने लिखा है कि -अर्थ का अभिप्राय है मनुष्यों का बस्ती। अत: अर्थशास्त्र उस शास्त्र को कहते है जिसमें राज्य की प्राप्ति और उसके पालन के उपायो का वर्णन हो । आचार्य उष्ण के राजनीतिविषयक शास्त्र को दण्डनीतिशास्त्र कहा गया है । उपर्युक्त विवेचन का आधार यह है कि जहाँ शासन प्रशासन होगा वहाँ न्याय व दण्ड का विधान होगा। महर्षि मनु ने भी दण्ड को शासन के लिए अनिवार्य माना है –
दण्ड: शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्ड: सुप्तेषु जागृति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ।
समाज के सभी वर्ग अपने अपने दायित्वो का निर्वाह कर सके, प्रजा में शासन प्रशासन के सभी कार्य नियमपूर्वक एवं विधिविधान से सम्पादित हों सभी को समानता का अधिकार मिले इसी परिकल्पना को आधार बना कर न्याय की आवश्यकता महसूस हुई । कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में न्याय व्यवस्था को दो भागों में विभक्त किया है –

व्यवहार और कंटकशोधन
प्रथम पक्ष में नागरिकों के परस्पर कलहों का निवारण किया जाता है जबकि द्वितीय पक्ष में राजकर्मचारियो व्यवसायियों और दुर्जनों से सम्बद्व न्याय का विधान मिलता है । न्याय की अवस्थित दण्ड पर आधारित है । शुक्रनीतिसार 4/5 1 36, बृहस्पति संहिता 1 / 29 तथा याज्ञवल्क्यस्मृति 2, 30 में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जिन मुकदमो को राजा सुनता था उनका फैसला वह अपनी परिषद तथा जजो के परामर्श से करता था । कौटिल्य के धर्मस्थ अधिकरण में दण्ड व्यवस्था का इतना सूक्ष्मता से चित्रण मिलता है जिससे यह स्पष्ट होता है कि कौटिल्य की तीक्ष्ण बुद्धि न सिर्फ दूरदर्शी थी बल्कि अन्वेषणपरक भी थी ।
कौटिल्य की दण्ड व्यवस्था के प्रमुख तीन अंग है – अर्थदण्ड , शरीरदण्ड एवं कारागारदण्ड इन तीनों भेदों को भी देश काल वातावरण तथा सामर्थ्य के अनसार विभिन्न भागो में बांटा गया है । अपराधियो के सुधार हेतु कौटिल्य ने बन्दीगहों का भी विधान किया है । कौटिल्य का विचार है कि प्रत्येक मनष्य अरिषडवर्ग से पराभूत है । ये छह शत्रु मनुष्य को कुमार्गों की ओर ले जाते हैं । कौटिल्य का मानना है कि काम, क्रोध, मद, लोभ जैसे शत्रुओं के प्रभाव से मनुष्य दोष रहित हो ही नही सकता । अत: इस मत्स्य न्याय से बचने के लिये, दण्डविधान आवश्यक है । कौटिल्य की दण्ड व्यवस्था बहुत ही वैज्ञानिक है । कौटिल्य के अनुसार दण्ड ऐसा होना चाहिए जिससे धर्म का पालन हो सके समाज का कल्याण हो आदर्शो का ह्रास न हो। इस सम्बन्ध में दण्डविषयक कौटिल्य की विचारधारा द्रष्टव्य है –
‘अपराधियों के लिए ऐसा दण्ड निर्धारित होना चाहिए जो उद्धेगकर न हो । मृत्यु दण्ड से प्रजा दण्ड देने वाले का ही तिरस्कार करने लगती है । उचित दण्ड ही कल्याणकारी होता है। भली भाँति विचार करके निर्धारित किया गया दण्ड प्रजा को धर्म अर्थ और काम में लगाए रखता है । ईर्ष्या द्वेष और अज्ञान के द्वारा अविचारित दण्ड जीवनमुक्त वानप्रस्थों और परिव्राजकों तक को कुण्ठित कर देता है फिर भला गृहस्थ लोगो मे तो उसकी कल्पना करना भी भयावह है ।
उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि कौटिल्य का दण्डविधान एवं न्याय व्यवस्था अपराधी को प्रताडित करने या डराने के लिए नहीं है क्योंकि आन्वीक्षकी, त्रयी, वार्ता और दण्ड इन चारों विद्याओं में दण्डनीति ही ऐसी बलवती है जिसके द्वारा शेष तीनों विद्याओं का सुविधापूर्वक संचालन किया जा सकता है । कौटिल्य की दण्ड व्यवस्था भारतीय दार्शनिक दृष्टिकोण पर आधारित है । कौटिल्य के दण्डविधान का उद्देश्य केवल समाज को सदमार्गों पर ले जाना था। निवर्तनवादी दार्शनिकों का मत कहता है कि –
‘भेड के चोर को भी दण्ड दिया जाना चाहिए इसलिए नही कि उसने भेड़ की चोरी की है बल्कि इसलिए कि कल किसी अन्य भेड़ की चोरी न हो ।’
प्रसिद्ध विचारक काण्ट ने कहा है कि – दण्ड एक प्रकार का ऋणात्मक पुरस्कार है । बेंथम की विचारधारा है किदण्ड नैतिकता की बाह्य तथा निषेधात्मक स्वीकृति है । मैकेजी का मानना है कि न्यायालय मनुष्य को उसी का प्रतिदान करता है जो वह कर चुका है । वास्तव में कौटिल्य की दण्ड व्यवस्था की योजना का सम्पूर्ण आधार लोककल्याण एवं लोकरक्षा ही रहा है । इसे कौटिल्य की दूरदर्शिता का ही परिणाम कहेंगे कि आज से लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व इन्होने एक ऐसे समाज की परिकल्पना करक उनका समाधान भा प्रस्तुत किया जो भविष्य में उनके समक्ष उपस्थित होने वाली थी । ये समस्त विषय हमारे लिए अनुसंधान के हो सकते हैं। अत: अर्थशास्त्र की प्रासंगिकता हमारे लिए सम्प्रति और भी बढ़ जाती है ।
निष्कर्ष रूप मे यह कहा जा सकता है कि कौटिल्य अर्थशास्त्र में शासन प्रशासन विधि न्याय एवं दण्ड प्रक्रिया इतनी व्यापक एवं प्रामाणिक है कि इसे आधार बनाकर किसी भी राष्ट्र की शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाया जा सकता है । अर्थशास्त्र एक कालजयी रचना है । कौटिल्य का अर्थशास्त्र पूर्वकाल में जितना प्रभावी था वर्तमानकाल भौतिकवादीकाल में भी इसकी प्रासंगिकता उतनी ही बल्कि उससे भी अधिक हो गई है । कौटिल्य की दूरदर्शिता इतनी प्रभावी थी कि उन्होने प्रत्येक भावी समस्या को वर्षो पहले न सिर्फ महसूस किया था बल्कि उनका प्रामाणिक और सारगर्भित समाधान भी प्रस्तुत किया । अर्थशास्त्र का एक एक विषय प्रामाणिकता और सारगर्भिता पर आधारित है अत: कौटिल्य का अर्थशास्त्र आज भी भावी शिक्षकों के लिए मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है। अर्थशास्त्र पर सम्पूर्ण विश्व मे प्रत्येक दृष्टि से अनेक शोध हुए हैं परन्तु फिर भी इसका विषय इतना विस्तत और व्यापक है कि आने वाले हजारो वर्षों तक इस पर नवीन अनुसंधान किया जा सकता है । अतः यह तथ्य स्पष्ट है कि अर्थशास्त्र भावी पीढी के लिए युगों युगों तक प्रेरणास्रोत्र बना रहेगा । इस न्याय से कौटिल्य का अर्थशास्त्र आज भी पूर्ण प्रासंगिक है ।।

DeekshaInstitute

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Related Posts

Open chat
1
Deeksha Institute
Hi, How Can I Help You ?