बदलते परिवेश में चाणक्य की समसामयिकता

ज्ञान-विज्ञान और स्वर्णिम वैभवसम्पन्न जगद्गुरू भारत की प्राच्यप्रतिष्ठा तथा सांस्कृतिक निष्ठा विषयक जिज्ञासा-पूर्ति के लिये हमें संस्कृतभाषाविचारित | विविध शास्त्रों का आश्रय लेना होगा। यद्यपि सामायिक भारत के India That is
Bharat के स्वरूप को तो हम अग्रेजी भाषा में भी समझ सकते हैं, परन्तु प्रासंगिक विषय उस कालखण्ड का है, जो द्वापर युग के महानायक योगेश्वर श्रीकृष्ण के 2500 वर्ष के पश्चात् तथा आज से भी 2500 वर्ष पूर्व का है । दोनों कालखण्डों के मध्यवर्ती इस यद्यपि चाणक्य की विद्या मनुष्य को एक चरित्र सम्पन्न नागरिक बनाती है तथापि वे मानते है कि राज्य सेवा अधिकारी व समाजकण्टक अपराधियों पर गुप्तचर रीति से नियन्त्रण अपेक्षित है। अपराध/दुराचरण नियन्त्रण के लिये चाणक्य का दण्डविधान प्रत्यक्ष न्याय व्यवस्था पर आधारित है तदनुसार अपराधी को दिया गया दण्ड उसके किये गये दण्ड के लिये तो है ही परन्तु भविष्य में इस प्रकार के अपराध की पुनरावृत्ति कोई और अपराधी नहीं करे इसलिये यथापराध सार्वजनिक रूप से हाथ कटवाना, सूली पर चढ़ाना, अंगुली कटवाना इत्यादि प्रावधान है । यौन अपराध प्रकरणों में चाणक्य का दण्डविधान आज अत्यन्त प्रासंगिक है, यदि तद्नुसार सम्पूर्ण देश में 100 यौनापराधियों को भी दण्डित कर सार्वजनिक किया जावे तो देश में उक्त अपराध तत्काल थम जायेंगे ।

चाणक्य-के-अनुसार-राजा


कौटिल्य का शासक वर्ग मानसिक दृष्टि से पुष्ट अन्तःकरण वाला ही हो सकता है, जो काम, क्रोध, लोभ मानमद और हर्ष को सर्वथा त्याग देगा ।
“विद्या विनय हेतुरिन्द्रिय जय: कामक्रोधलोभमानमद हर्ष त्यागात्कार्य’ \
अर्थात् शासक जितेन्द्रिय होगा उसके लम्पट होने की कोई सम्भावना नहीं है। वहकिसी रूपसी को देखकर कामासक्त नहीं हो सकता। चाणक्य का शासक तो एक कठोर साधना करने वाला सन्यासी लगता है, जिसके रहते मन्त्री, सचिव वर्ग में दुराचरण की सम्भावना भी नहीं हो सकती । भारत में यदि सम-सामयिक समस्याओं का समाधान चाहे तो इस गण का शासक वर्ग में प्राय: अभाव हो रहा है। हमारे शासक/प्रशासक/न्यायाधीष यौन दुराचारी लालची राजकोष वन्चना के अपराधी प्रमाणित हो रहे है, ऐसी स्थिति में “यथा राजा तथा प्रजा” अनुसार इस बिगड़ती हवा को कौन बाँध सकता है क्योंकि एक नैतिक व संयमी प्रशासक तो स्वंय ही साक्षात कानून जैसा नज़र आता है तथा एक भ्रष्ट व लम्पट शासक प्रजा को भी वैसा ही बनने का सन्देश प्रजा में प्रकारान्तर से देता है, इस प्रकार महत्त्वपूर्ण यह है कि कानून का नियामक कैसा है? क्योंकि राजमार्गों पर अचेतन वाहन कभी दुर्घटना ग्रस्त नहीं होते अपितु चालकों की विकृत मनोदशा टकराती है । अत: शासक/प्रशासक की चरित्र पुष्टि का परीक्षण कागजी न होकर चाणक्य प्रणीत मानदण्डानुरूप हो ।

भारतवर्ष की वर्तमान कानून व्यवस्था की समीक्षा हम चाणक्य अर्थशास्त्र के सन्दर्भो में करे तो प्रतीत होता है यह तो कानून विशेषज्ञों का खिलौना बन कर रह गया है। आज प्रत्येक क्षेत्र में अराजकता की मलीन अन्तः सलिला बह रही है जिसे रोक पाने में शासन सक्षम नहीं लगता क्योंकि हम विधि-निषेध कृत्याकृत्य पालना में उभयविध असफल है। यही कारण है कि आज हम स्वतन्त्र कम स्वच्छन्द ज्यादा हो गये है ।
यदि हमारे सामयिक संविधान के निर्देशों को देखते है तो लगता है कि इसमें किसी भी प्रकार के अपराध की कोई सम्भावना नहीं है, किसी भी प्रकार की चोरी अपराध ठगी लूटपाट मानहानि व दुर्भावना तक को रोकने का शासन-विधान में सख्त कानून व्यवस्था का निर्देश है जिसकी पालना के चलते अराजकता की स्थिति हो ही नहीं सकती । कानून के भारी-भरकम जाल से बचकर कोई नहीं निकल सकता। संविधान किसी को भी अपराध करने की छूट नहीं देता, परन्तु यह दुर्भाग्य है कि कानून व्यवस्था की स्थिति को सुचारू बनाये रखने के लिये भारीभरकम तन्त्र के होते हुए भी यह सब हो रहा है जो कानून विरूद्ध है । समाचार जगत की दैनिक सूचनाएं पढ़कर/देखकर लगता है जैसे चारों ओर अपराध जगत का बोलबाला है । इस प्रकार प्रश्न यह है कि वर्तमान में व्यवस्थापिका, कार्यपालिका व न्यायपालिका का वृहदाकार सुशासन हेतु सतत प्रयासरत है तो फिर कौन सी कमी है? क्या कारण है कि यहाँ भ्रष्टाचार दुराचार व अपराधों को रोकने में सफलता नहीं मिल रही है । उक्त प्रश्नों के समाधान में कौटिल्य का अर्थशास्त्र हमारा मार्गदर्शन करता है।
आचार्य कौटिल्य मनुष्यों के व्यवहार या जीविका को “अर्थ” कहते है।” (मनुष्याणां वृत्तिरर्थः) तथा मनुष्यों से युक्त भूमि को भी अर्थ कहते है। (मनुष्यवती भूमि: “इत्यर्थः”) इसी पृथ्वी को प्राप्त करने और रक्षा करने के उपायों का निरूपण करने वाला शास्त्र अर्थशास्त्र है । (तस्याः पृथिव्याः लाभपालनोपाय: शास्त्र अर्थशास्त्रम्) इस प्रकार कौटिल्य अर्थशास्त्र पृथ्वी पर रहने वाले मानव समूह के जीवन प्रबन्धन की नियामक व्यवस्था का शास्त्र है । जिसमें शासक वर्ग की चारित्रिक योग्यता का मानदण्ड ही सम्पूर्ण समस्याओं का समाधान है । अतीत और वर्तमान की तुलनात्मक समीक्षा यदि हम इतिहास की दार्शनिक दृष्टि से करें तो तात्विक निष्कर्षानुसार भौतिकस्वरूप व नाम संज्ञा भिन्नता के अतिरिक्त शेष परिस्थितियाँ व घटनाएँ प्राय: तात्विक रूप से समान ही होती है। ऋतुओं का स्वभाव जैसा पहले था आज भी प्राय: वैसा ही है। प्रस्तुत पंक्तियाँ उक्त संदर्भ में युक्ति संगत ही है।
यदि 15 अध्याय व 150 अधिकरणनिबद्ध कौटिल्य अर्थशास्त्र के वस्तुनिर्देश लक्षण व परीक्षा की तात्विक समीक्षा करें तो प्रतीत होता है जैसे परिशिष्ट व धारानिबद्ध यह नामान्तरित हमारा संविधान ही है चाणक्य प्रणीत अर्थशास्त्र का द्वितीय अधिकरण विषय विभाग की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण व विस्तृत भी है जिसमें 36 अध्याय हैं।

चाणक्य-के-विचार

प्रशासनिक दृष्टि से ग्राम गठन की तात्कालिकी योजना’ स्थानीय -800 ग्रामों का समूह प्रोणमुख -400 ग्रामों का समूह खर्वाटिक-200 ग्रामों का समूह संग्रहण – 100 ग्रामों का समूह में सामयिक जिला परिषद पंचायत समिति और ग्राम पंचायत प्रतीत होती है उक्त अधिकरण में किसानों की सहायता हेतु अनुदान देने का निर्देश है।
“धान्यपशुहिरण्यैश्चैनाननुगृहणीयात्” (2-1-15)
“अनुग्रहपरिहारौचैम्यःकोशवृद्धिकरौदधात्” (2-1-16)
राजा को चाहिये कि वह किसानो की बीज, पशुधन व कृषि उपयोगी पदार्थों द्वारा यथावसर सहायता देता रहे । किसानों के स्वास्थ्य लाभ हेतु परिमित धन प्रदान करने से स्वस्थ किसान राजकोष को कृषि उत्पादन से समृद्ध कर सकेगा ।
पृष्टः प्रियहितं ब्रूयात् न ब्रूयाद् हितं प्रियम्।
अप्रियं वा हितं ब्रूयात् शृण्वतोऽनुमतो मिथः।।’
अर्थात अमात्य आदि राज्य कर्मचारी पूछे जाने पर राजा को प्रिय और हितकारी बात कह दें । उसे अहितकारी बात, यद्यपि प्रिय हो, न कहें पान हितकारी बात, यद्यपि अप्रिय हो, अवश्य कह दें । राजा के अनुमति देने पर और ध्यान पूर्वक सुनने पर ही समाज अपनी मन्त्रणा दें । विद्वान पुरुष आत्मगण सम्पन्न राजा का ही आश्रय लें । जो आत्मगुण सम्पन्न नहीं है, उसका कदापि आश्रय ग्रहण न क रें। अनात्मज्ञ राजा, नीतिशास्त्र के ज्ञान के अभाव के कारण अनर्थ कारक मृगया आदि व्यसनों में फंसा रहेगा और एक दिन अपना एश्वर्य नष्ट कर बैठेगा । यदि राजा आत्मगुण सम्पन्न होगा, उसे नीति मार्ग की शिक्षा से सन्मार्ग पर लाया जा सकता है । जब कभी राजा मन्त्रणा के योग्य कार्यों में मन्त्री की सम्मति ले, तो उस मन्त्री का कर्तव्य है कि वह वर्तमान तथा भविष्य में कल्याणकारी, धर्म तथा अर्थ से संयुक्त सन्मन्त्रणा निर्भयता पूर्वक प्रदान करे ।

चतुर राजपुरुष राजसभा में कभी झगड़कर बात न करें, असभ्य और मिथ्या भाषण न करें एवं उपहास के समय के अतिरिक्त कभी जोर से न हंसे । जब राजा हंसे, तो हंसे । परन्तु तब भी अटट्हास न करे । बुद्धिमान मन्त्री तथा समाहर्ता आदि अन्य राज्य-अधिकारी राज्य के व्यय को कम करने की सदा चेष्टा करें और आय-वृद्धि करने में सदा तत्पर रहें । दुर्ग में अथवा बाहर राष्ट्र में होने वाले सार्वजनिक कार्यों का सदा निरीक्षण करते रहें कि राज्यकोष का कहीं निरर्थक दुरुपयोग तो नहीं हो रहा । यदि राजा स्वयं मृग या, मद्य, द्यूत अथवा स्त्रियों में धन का नाश करता हो तो बुद्धिमान मन्त्री उसके इन व्यसनों को दूर करने की निरन्तर चेष्टा करे ।
योग्य मन्त्री राजा की शत्रुओं से तथा प्रजा में फूट डालने वाले अमित्रों से रक्षा करता रहे । वह उसे यही मन्त्रणा दे कि तम बलबानों से कभी युद्ध मत छेड़ना; जिस समय किसी शत्रु के बलबान सहायक हो तो उस समय उस पर चढ़ाई न करना; प्रजा को सदा संतुष्ट रखने का प्रयत्न करना, जिससे वह शत्रु के साथ षड्यन्त्र करन म प्ररित न हो जाय । बुद्धिमान राजकर्मचारी समय को देखकर ही राजा के पास जाए और उसे अपने कर्तव्य के अनुसार हितकारी बात कहे। यदि राजा न हो तो राजसभा में कदापि न जाए । प्रत्येक राजकर्मचारी अपने-अपनर ही अपने कर्तव्य का धर्मपूर्वक पालन करे । जो राज्य कर्मचारी प्रजाहित तथा सेवा की ना से ओत-प्रोत न हो, उसे अपने पद से पृथक कर देना ही उचित है । योग्य, मागशील, राजभक्त तथा सेवा परायण कर्मचारियों पर ही देश का अभ्युदय निर्भर है । कौटिल्य केवल राज्य कर्मचारियों, अधिकारियों, मन्त्रियों आदि के कर्तव्यों पर ही अपने विचार व्यक्त नहीं करता अपितु कर्मचारी, अधिकारी, मंत्री कर्तव्य निष्ठ कैसे बनें इसकी भी चर्चा करता है, कौटिल्य मानता है कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी आवश्यकताएं होती हैं और राजा का यह दायित्व है कि वह अपने राज्य कर्मचारियों की इन आवश्यकताओं का ध्यान रखे उसने अर्थशास्त्र में लिखा है –
विद्या की योग्यता तथा कर्म की कुशलता को देखकर राजा अपने कर्मचारियों के वेतन तथा मजदूरी के पारिश्रमिक की व्यवस्था करे। राजा अपने राष्ट्र तथा दुर्गों की आवश्यकतानुसार कुल आय का चौथा भाग राज्य-कर्मचारियों के भरणपोषण पर व्यय करे। राजा उन्हें शरीर-सुख के लिए इतना वेतन दे जिससे वे उत्साह पूर्वक अपना कार्य कर सकें। परन्तु राजा कोई भी ऐसा कार्य न करे जिससे धर्म और अर्थ की हानि हो। कौटिल्य के अनुसार ऋत्विक्, आचार्य, मन्त्री,पुरोहित, सेनापति, युवराज, राजमाता और राजमहिषी को 48000 पण प्रतिवर्ष वेतन प्राप्त होना चाहिए। इतने वेतन से वे प्रलोभन का शिकार नहीं बनते और असन्तुष्ट होकर राजद्रोह नहीं करते । अन्तःपुर-रक्षक, शस्त्राध्यक्ष, समाहर्ता, सन्निधातां तथा अन्नपाल को 24000 पण वार्षिक वेतन दिया जाय। कुमार, कुमारों की माता, नगर-रक्षक, पश्याध्यक्ष नायक (कोतवाल) कर्मान्ताध्यक्ष (कारखानों के निरीक्षक) तथा राष्ट्रपाल को 12000 पण सालाना वेतन मिले । इतने से वे राजा के भक्त बने रहेंगे और उसके शक्तिशाली सहायक बनेंगे ।

पैदल सेना के अध्यक्ष, अश्वरोही, रथारोही, रथारोही, सेना के स्वामी तथा हस्ति वनों के अध्यक्ष की चार सहस्त्र वार्षिक वेतन मिलना चाहिए । सेना के चिकित्सक, अश्व-शिक्षक, पश-पालक तथा इंजीनियर को वार्षिक दो सहस्त्र पण मिलना उचित है । जो राज्यकर्मचारी कर्तव्य पालन करते हुए मर जाएं, उनकी पत्नी तथा पुत्रों को निर्वाह-वेतन दिया जायेगा । यदि अन्य कोई सम्बन्धी वृद्ध या रोग पीडित हो, उसकी भी सहायता की जाएगी । राज्य-कर्मचारियों के सन्तान उत्पन्न होने के समय, सन्तान के विवाह के समय तथा मृत्यु के अवसर पर भी कर्मचारियों का वेतन धन दे कर सहायता की जायेगी । प्रत्येक राज्यकर्मचारी का वेतन सम्बन्धी योग्यता तथा कार्य-कुशलता को देखकर निश्चित किया जायेगा । यति कोष में धन कम हो तो वेतन के स्थान पर धान्य और पशु भी दिया जा सकेगा अथवा वेतन के रुप में गाँव की जमीन जागीर के तौर पर दी जा सकेगी । कौटिल्य ने वेतन व्यवस्था को इतना व्यावहारिक बनाया है कि किसी भी राज्य कर्मचारी को भ्रष्ट्राचार करने की आवश्यकता न पडे किन्तु यदि फिर भी कोई राज्य कर्मचारी भ्रष्ट्राचार करता है तो उसके लिए आचार्य कौटिल्य कडे दण्ड की व्यवस्था भी करता है ताकि उन पर आवश्यक नियन्त्रण बना रहे। कौटिल्य लिखते हैं कि –
एनमर्थचरान् पूर्व राजा दण्डेन शोधयेत्।
शोधयेयुश्च शुद्धास्ते, पौरजानप्रदान दमैः।। राजा प्रथम अपने कर्मचारियों को दण्ड द्वारा ठीक चलाए फिर उचित दण्ड-व्यवस्था द्वारा उन कर्मचारियों की सहायता से देश की जनता का ठीक-ठाक अनुशासन करे । राजा को अपने कर्मचारियों पर कठोर नियन्त्रण रखना चाहिए । उनके अयोग्य अथवा भ्रष्ट्राचारी होने पर प्रजा बहुत पीड़ित होती है । इन प्रजापीड़को की उचित दण्ड व्यवस्था द्वारा अनुशासन में रखना नितान्त आवश्यक है, तभी प्रजा का हित-सम्पादन सम्भव हो सकता है । समाहर्ता और प्रदेष्टा नामक उच्च राज्याधिकारी अन्य कर्मचारियों का नियमन करें । जो कर्मचारी खान या वन से रत्न या चन्दन की लकड़ी चलती कर दें, जो राजकीय खेतों से फसल गायब कर दे अथवा कारखानों से कपास आदि उड़ा ले, उसे प्राणदण्ड तक देना चाहिए । जो कर्मचारी कोष, भण्डार और प्रेक्षशाला से कोई वस्तु चुरा ले, उसको शरीर में गोबर और भस्म लपेटकर, ढिढोरे के साथ नगर में घुमाया जाए, अथवा सिर मुंडवाकर नगर से बाहर निकाल दिया जाय। जो अध्यक्ष, गाँव का मुखिया या अन्य कर्मचारी जाली दस्तावेज अथवा मुहर बनबाए, उसे कारागार में डाल देना चाहिए ।

चाणक्य


जो धर्माध्यक्ष बयान देते हुए पुरुष को फटकारता, धमकाता है, कचहरी से निकाल देता है या रिश्वत खा जाता है, अथवा पूछने योग्य बात को नहीं पूछता, नहीं पूछने योग्य बात को पूछता है, कुछ बात को पूछकर वहीं छोड़ देता है, किसी बात को याद दिलवाता या पूर्व बात को पूर्ण कर देता है, तो ऐसे अयोग्य धर्माध्यक्ष को पदच्युत कर देना चाहिए । जो धर्मस्थ देने योग्य आज्ञा नहीं देता और नहीं देने योग्य आज्ञा देता है, किसी झगडे को बिना साक्षी के निपटा देता है, काल व्यतीत करके थके हए वादी-प्रतिवादी को तंग करता है, ठीक-ठाक बोलते हुए वादी-प्रतिवादी को गडबडा देता है अथवा साक्षियों को परामर्श देता है, उस धर्मस्थ को भी अपने पद से पृथक कर देना चाहिए। यदि कोई धर्माधिकारी अनुचित रुप से अदण्डनीय व्यक्ति को सुवर्ण-दण्ड अथवा शरीर-दण्ड देवे तो राजा उस अधिकारी पर उससे दुगुना दण्ड लगाए। जो अधिकारी दण्ड-स्थान अथवा कारागार से अभियुक्त को भगा दे, उसे मृत्युदण्ड देना उचित है । जो कैदी को क्लेश दे या रिश्वत के लिए तंग करे, कैद में आई स्त्री के साथ व्यभिचार करे और बन्धनागार की दासियों के साथ दुर्व्यवहार करे, उसे भी दण्ड देना उचित है ।’
राजा गुप्तचरों की नियुक्ति करे और उनके द्वारा उच्च अधिकारियों, अमात्यों, आदि की शुद्धता ज्ञात करता रहे । जो अधिकारी दूषित हो; उन्हें राष्ट्रपाल अथवा अन्तपाल बनाकर राज्य के सीमा प्रान्त पर भेज दें और तीक्ष्ण पुरुषों द्वारा उन्हें मरवा दे, अथवा उनके द्वारा अपने मरने का षडयन्त्र नगर में घोषित कराकर उन्हें फांसी पर चढ़ा दे । इन अधिकारियों के पुत्र पिताओं के मर जाने पर यदि राजा से द्वेष न करें और पिता का बदला लेने का विचार न रखें तो उन्हें योग्य होने पर पिता का अधिकार दे दिया जाए । राजभक्ति में परीक्षित कुलों के पुत्र व पौत्र राजकार्य के संचालन में बहुत सहायक होते हैं । आचार्य कौटिल्य द्वारा भ्रष्टाचार के कारणों और उनके प्रभावी नियन्त्रण के जो विचार अपने ग्रन्थ में उद्धत किये गये हैं वे स्वाभाविक और व्यावहारिक दोनों हैं । भ्रष्टाचार का मूल व्यक्ति की आर्थिक लालसा में निहित है

यह जितना सत्य उस समय था उतना ही सत्य आज भी है। वर्तमान में न तो भ्रष्टाचार के कारण परिवर्तित हुए हैं और न ही उन्हें दूर करने के उपाय कालातीत हुए हैं । आवश्यकता तो इस बात की है कि आचार्य कौटिल्य द्वारा बताये गये नियन्त्रण के उपायों को वर्तमान व्यवस्था के अनुरुप बनाकर उन्हें प्रभावी ढंग से लागू किया जाय। आज भ्रष्टाचार जिस रुप में हमारे सामने मुँह बायें खड़ा है उससे निपटने के लिए कड़े उपाय करने की जरुरत है । आचार्य कौटिल्य के द्वारा बताये गये उपाय निश्चित तौर पर इस समस्या से निपटने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं । सभी शास्त्रों की तर्क संगत बातों का इसमें समन्वय किया गया है और यह कि इसके सभी सिद्धान्त कसौटी पर खरे पाये गये है । कौटिल्य ने अर्थशास्त्र का मुख्य विषय दण्डनीति अर्थात् राज्यशास्त्र को स्वीकारा है कौटिल्य ने दण्डनीति के पर्यायवाची के रूप में ही अर्थशास्त्र शब्द का प्रयोग किया और इसी अर्थशास्त्र में कुल 15 अधिकरण विनयाधिकारिक, अध्यक्षा धर्मस्थनीय, कण्टकशोधन, योगवृत, मण्डलयोनि, षाड्गुण्य, व्यसनादिकारिक, अभयास्यत्कर्म, सांग्रामिक संघव्रत, दुर्गलम्भोपाय, औपनिषदिक एवं वंण मुक्ति में राज्य एवं उससे सम्बन्धित समस्याओं का विवेचन, एवं राजा को किस प्रकार युद्ध कौशल की प्रक्रिया, न्याय, राजा से प्रजा के सम्बन्ध एवं हारे हुये राजाओं के साथ किस प्रकार का व्यवहार किया जाना चाहिए की विवेचना की गई है ।
कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में नागरिक कानूनों की व्याख्या की है जिसमें समझौतो एवं संविदाओं की कानूनी प्रक्रिया का वर्णन और वैधानिक झगड़ों को किस प्रकार सुलझाया जा सकता है की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया, इसके साथ ही फौजदारी कानूनों का वर्णन किया गया एवं ऐसे अनेक प्रयास किये गये जिनके द्वारा कारीगरों, व्यापारियों तथा प्रशासनिक अधिकारियों के विरूद्ध सामान्यजनता की रक्षा की जा सके । कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दण्डनीति को सभी पुरूषार्थो का स्रोत माना गया है । जीवन और सम्पत्ति की रक्षा तथा वर्णाश्रम धर्म का पालन केवल एक सुव्यवस्थित एवं सुप्रशासित समाज में ही हो सकता है । पुरुषार्थी व्यक्ति समाज में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को धारण करने वाला होता है।

सरकार के सम्बन्ध में अर्थशास्त्र का मुख्य उद्देश्य स्थायी केन्द्रीकृत एवं कार्यकुशल सरकार प्राप्त करना था जो जनता को शारीरिक, आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करके उसका भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति का प्रतीक बन सके । कौटिल्य का मानना है कि राज्य यह सुनिश्चित करे की सामाजिक व्यवस्था का निर्वाह वेदों और शास्त्रों में स्वीकृत वर्ण और आश्रम व्यवस्था के अनुकूल हो । विभिन्न वर्गों के सदस्य आर आश्रमों में रहने वाले व्यक्ति अपने कर्तव्यों एवं मर्यादाओं का पालन करें, विभिन्न वर्णो के पारस्परिक सम्बन्धों तथा वैवाहिक व्यवस्था आदि को राजा राज्य क विधि द्वारा विनियमित और संचालित करें । कोई व्यक्ति समर्थ होते हुये भा सतान, पत्नी, बहन तथा माता-पिता का भरण पोषण नहीं करता तो उसे राज्यवार दण्डित किया जाना चाहिए और यदि कोई व्यक्ति अपने पुत्र व पत्नी के जीवन निर्वाह की उचित व्यवस्था किये बिना ही संन्यास ग्रहण करना चाहे तो राज्य द्वारा उसे दण्डित किया जाना चाहिए । इस प्रकार कौटिल्य ने समाज व्यवस्था को बनाये रखने के लिये स्त्री-पुरुष व विभिन्न वर्णो के मध्य हीनता एवं श्रेष्ठता का भेदभाव नहीं किया अपितु योग्यता के अनुरूप श्रम विभाजन को व्यावहारिक सिद्धान्त के रूप में मान्यता प्रदान की ।

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