मेहंदी के फूल ( Mehandi Ke Phool )
लेखक : यादवेन्द्र शर्मा ‘ चन्द्र ‘
दूर-दूर तक विस्तृत रेगिस्तान। सूना और शान्त । कहीं-कहीं पर छोटी-छोटी बेर की झाड़ियाँ और खेजड़े के वृक्ष । शेष रेत ही रेत । आग उगलती धूप और स्तब्ध पवन ।
ऐसी निस्तब्धता को भंग करती हुई एक बस कच्ची सड़क पर तेज रफ्तार से जा रही थी । बस में पूरे यात्री थे । ड्राईवर के ठीक पास दो बूढ़े चौधरी बैठे थे जिनके चेहरों पर जीवन के संघर्ष की प्रतिरूप झुर्रियाँ झलक रही थीं। पीछे कितने ही अपरिचित अनजान स्त्री-पुरुष रंग-बिरंगे साफे पहने और स्त्रियाँ ओढने ओढ़े हुए थीं ।
सबसे पीछे की सीट पर एक राजपूत युवक मुकलावा (गौना) करके आ रहा था । उनसे चार सीट आगे एक सेठ अपनी नवविवाहिता बेटी को लेकर लौट रहा था । वह लड़की अद्वितीय सुंदरी थी । उसका केसर सा रंग केसरिया वस्त्रों में एकमेक हो रहा था और उन पर जड़े सलमें सितारे जो उसके सौन्दर्य की श्रीवृद्धि कर रहे थे ।
कच्ची सड़क होने की वजह से हिचकोले जरूरत से ज्यादा आ रहे थे, पर ड्राईवर अत्यन्त सजगता से स्टीयरिंग को संभाले हुए था ।
अप्रत्याशित, जिधर बस जा रही थी, उसके पूर्व की ओर धूल के बादल उड़ते हुए नजर आए। सारे यात्री शंकित हो गए । एक चौधरी ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा, शायद भटलोटिया उठा है ।
दूसरा चौधरी जिसकी आवाज भारी थी, बोला,आंधी भी आ सकती है। इस मरुभूमि में बरखा तो कम और आंधी अधिक आती है ।
सेठ ने अपनी इंद्रधनुषी पगड़ी को उतार कर अपने गंजे सिर पर चमकती पसीने की बंदों को पोंछा । फिर अपनी नवविवाहिता लड़की मन्नी से धीरे-धीरे कहने लगा, सुन री छोरी, आंधी आने वाली है, अपने गहनों को ध्यान से रखना ।
नवविवाहिता मन्नी ने गले में सोने का तिमणिया और कांठलिया पहन रखा था । सिर पर बड़ा बोर था। दोनों कानों में बालियाँ झिलमिला रही थीं । नाक में कांटा था पावों में चांदी के भारी भारी बिछवे।
बाप का संकेत पाकर मन्नी ने अपने ओढ़ने से अपने शरीर को ढक लिया ।
मुकलावा करके आने वाला राजपूत अपनी कमर में लटकती तलवार को निरुद्देश्य देख रहा था । उसके समीप बैठा उसका मित्र अपनी हाथ की कटार से खेल रहा था ।
धूल के बादल और गहरे हुए । वे बस के समीप आने लगे । यात्रियों की आँखें उस ओर जम गईं । ड्राईवर ने बस की रफ्तार को और तेज कर दिया ।
तभी गोली की आवाज सुनाई पड़ी। गोली की आवाज के साथ यात्रियों ने देखा कि धूल के बादलों को चीरती हुई एक जीप आ रही हैं, जीप में चार आदमी बैठे हैं, जिनके चेहरे कपड़ों से ढके हुए हैं ।
एक यात्री चिल्लाया,डाकू! डाकू आ गए हैं।
सारी बस में सनसनी फैल गई । डाकू शब्द फुसफुसाहट में बदल गया। सेठ ने जोर से कहा, “बस को और तेज करो ।
एक गोली बस के अगले शीशे के ऊपर की ओर टकराकर हवा में उड़ गई । ड्राईवर के हाथ से स्टीयरिंग छूट गया । उसने घबराकर गाड़ी रोक दी । चंद क्षणों के अन्तराल पर जीप बस के आगे थी । अब यात्री जीप में बैठे सभी यात्रियों को अच्छी तरह देख सकते थे । बस में मृत्यु-सा सन्नाटा छा गया था । लोग एक-दूसरे को भयभीत दृष्टि से ऐसे देख रहे थे जैसे वे पूछ रहे हों कि अब क्या होगा ?
जीप में बैठे लोग उतर गए । ड्राईवर के अतिरिक्त पांच लोग और थे । एक के हाथ में तनी हुई बन्दूक थी।
बन्दूकधारी ने गरजकर कहा- तुम लोग अपनी जान की खैर चाहते हो। तो चुपचाप बैठे रहो । कोई भी हिले-डुले नहीं ।
यात्रियों की सांसे गले में रह गईं ।
बन्दूकधारी ने फिर अपना परिचय दिया, मैं डाकू तेजसिंह हूँ । मैं तुम लोगों में से किसी को कुछ भी नहीं कहूंगा….. मैं सिर्फ इस सेठ की बेटी को लेने आया हूँ । शेष यात्रियों ने राहत का अनुभव किया लेकिन सेठ और उसकी नवपरिणिता बेटी कांप उठे। लड़की मन्नी अपने बाप से चिपट गई ।
तेजसिंह उन दिनों राजस्थान का कुख्यात डाकू था । उसने कई जानें ली थीं और अब वह सच्चे डाकुओं की मान मर्यादा का परित्याग करके नीच से नीच काम करने पर उतारू हो गया था। चूंकि दूसरे डाकू अपने पेश की नैतिकता और उसके धर्म को लेकर चलते थे, इसलिए उन्होंने तेजसिंह से स्पष्ट कह दिया था कि अब वे उसके साथ नहीं रह सकते । वह गांवों से निरीह लड़कियों को उठा लाता था । किसी किसी को जान से भी मार देता था । तेजसिंह में एक राक्षस की सारी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो गई थीं ।
तेजसिंह एक बार फिर सिंह की भांति गरजा, सेठ अपनी बेटी को मेरे हवाले राजी खुशी कर दे ।
मन्नी ने अपने बाप को मजबूती से पकड़ लिया । दोनों थर-थर कांपने लगे । दोनों के चेहरे वर्षों से बीमार की तरह पीले पड गये थे ।
तेजसिंह की आंखों में रक्तिम डोरे उतर आए । वह उस खिड़की के पास आकर बोला, सुना नहीं सेठ! लड़की को मेरे हवाले करो वरना मैं गोली मारता हूँ
लड़की क्रन्दन करती हुई अपने भयातंकित बाप से और लिपट गई। रुआंसे स्वर में बोली, नहीं, बापू नहीं। मुझे इसके हवाले न करना- बापू ।
तेजसिंह चिल्लाया, बन्ना, जाकर लड़की को ले आ
तेजसिंह का साथी अपने सरदार का आदेश पाकर बस में घुसा। तेजसिंह ने तत्काल एक हवाई फायर किया। सारे यात्री कलेजा पकड़कर बैठ गए । उन्हें महसूस हुआ कि गोली उनके सीने में दाग दी गई है । सबकी आँखों में आशंकित मृत्यु का भय और जड़ता उभर उठी । बन्ना ने भीतर घुसकर बाप से लिपटी बेटी को छुड़ाना चाहा । बाप ने हाथ को जोड़कर प्रार्थना की माई-बाप। मेरी बेटी को छोड दीजिए मैं आपको सारे जेवर दे दूंगा ।
परन्तु लोभ में अन्धे तेजसिंह को उस लडकी के सिवा कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा था। जब बाप ने लड़की को नहीं छोडा, तब तेजसिंह ने सेठ के सिर पर चोट की । आर्तनादों के बीच लडकी घसीटकर बाहर निकाल ली गई । सब यात्री निर्जीव से बैठे रहे । वे गूंगे-बहरे बनकर अपनी अपनी सीटों से चिपक गए थे। लग रहा था, कोई है ही नहीं इस बस में ।
लड़की अब भी चीख-चिल्ला रही थी । बन्ना उसे बाँहों में ले चुका था । मुकलावा करके लौट रहे राजपूत युवक की पत्नी थोडा सा घूँघट हटाकर राज स्वर में बोली,आप सब चुल्लू भर पानी में डूब मरिए । आपके सामने एक लड़की को डाकू उठा ले जा रहे हैं और आप हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं । थू है आप सब पर ।
अचानक इस तेज फटकार से बस में तनिक हलचल हुई । राजपूत युवक अपनी पत्नी को ही प्रश्नवाचक दृष्टि से देखने लगा । शायद वह सोच रहा हो कि इसे यकायक यह क्या हो गया है । यह हमारी कौटुम्बिक परम्पराओं को तोड़कर क्यों हुंकार भर रही है ।
राजपूत पत्नी की आंखों में अंगारे बरस रहे थे । उसने थोड़ा सा घूँघट खींचकर अपने पति से कहा, मैं आपसे क्षमा माँगती हूँ, कुंवर सा । आप मुझे इस गलती की बाद में कोई भी सजा दे दीजिएगा । किन्तु कुंवर सा, आपकी वीरता कहां चली गई? जो क्षत्रिय गौ, ब्राह्मण, अबला का रक्षक कहलाता था, जिन पर हँसते हँसते वह उत्सर्ग हो जाता था, उसी के सामने एक लड़की मुक्ति की भीख मांग रही है, और आप पत्थर की तरह चुपचाप बैठे हैं। क्या आपका खून पानी हो गया है? वरना क्या मजाल थी कि एक सच्चे राजपूत के होते हुए कोई चोर डाकू किसी बाप से उसकी बेटी छीनकर ले जाए ।
अपनी पत्नी की तेजस्वी ललकार पर राजपूत खड़ा हो गया । उसके सिर पर लाल रंग का साफा था । उसकी बॉकड़ली मूंछों पर उसका हाथ ताव देने चला गया । जोश में उसके नथूने फुरकने लगे। फिर वह अपनी तलवार की मूंठ पर हाथ रखकर इतना ही बोल पाया, कुंवराणी
कुंवराणी पूर्ववत् स्वर में बोली, आज सारे इतिहास को आग लगानी पड़ेगी । राजपूतों के शौर्य को मिटाना होगा । वरना एक राजपूत के होते हुए डाकू लड़की को उठाकर ले जाए। छिः छिः।
राजपूत चीख पड़ा, क्षत्राणी, चुप रहो। मैं चुप नहीं रहूंगी। मैं कहूंगी कि आप सब मर्दो को चूड़िया पहन लेनी चाहिए।
सेठ की बेटी को जीप में डाल दिया गया। वह क्रन्दन करती हुई बेहोश हो गई थी । खूंखार डाकू तेजसिंह बन्दूक लेकर उसके समीप बैठ गया। उसने ड्राईवर को आज्ञा दी, जीप रवाना करो ।
पर जीप घर्र-घर्र करके रह गई ।
तेजसिंह ने बन्दूक के पिछले हिस्से से ड्राईवर को हल्का सा धक्का देकर कहा, जीप चलती क्यों नहीं?
कुंवराणी ने सचमुच अपने हाथ की चूड़ियाँ खोलकर अपने पति की ओर बढ़ा दी, लीजिए, इन्हें पहनकर आप बैठिए, और तलवार मुझे दीजिए।
राजपूत ने आवेश में कांपते हुए अपने स्वर पर काबू करके कहा. कुंवराणी, मैं राजपूत तो वही हूँ पर समय बदल गया है
कैसा समय बदल गया? राजपूत के लिए दूसरों की रक्षा करने का कोई समय नहीं होता।
तेजसिंह पागलों की तरह चीखा, जीप चलाओ।
राजपूत ने किंचित् व्यथित स्वर में कहा, जरा होश में आकर बात करो हम अभी गौना करके आए हैं। तुम्हारे हाथों की मेहँदी का रंग भी अभी नहीं उतरा है। घर पर ठकुराणी सा और ठाकुर सा हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। ऐसे समय में मत ललकारो।
जीप ड्राईवर ने कहा, सरदार बैटरी बैठ गई है तेजसिंह चीखा-क्या बकते हो? सरदार, सच कह रहा हूँ।
राजपूतानी ने हाथ जोड़कर विनीत स्वर में कहा, आपके माता-पिता जब यह सुनेंगे कि यह एक लड़की की रक्षा नहीं कर पाया, तो वे जीते जी मर जायेंगे।
स्थिति को देख लो। पल भर में तुम विधवा हो सकती हो।
विधवा! कंवर सा, विधवा तो मैं तब भी हो सकती हूँ जब आप खेत में काम कर रहे हों, और आपको कोई काला नाग डस जाए। आप जोर से खिलखिलाकर हँसे और हँसते ही परलोक सिधार जाएं। पर यह मृत्यु कितनी महान् और आदरमयी होगी। यदि आपने उस अबला की रक्षा नहीं की, तो में समझूगी कि मैं जीते जी विधवा हो गई हूँ।
राजपूत अब अपने आप को नहीं रोक सका। वह क्रोध से बावला गया। उसके नेत्र अंगारों से हो गए। वह तड़ककर बोला, तुम राजपूत के जाल देखना चाहती हो?
मैं उसे अपने धर्म पथ पर चलते देखना चाहती हूँ । मैं चाहती हूँ, वह अपने अतीत को न भूले। वह अपने शौर्य और कर्त्तव्य को न भूले।
उसी समय एक कार आ गई। तेजसिंह ने अपने ड्राईवर से तत्परता से कहा, इस कार की बैटरी लगाओ। उसने हाथ के इशारे से कार को रोक दिया।
राजपूत ने अपने साथी की कटार ली। भूखे बाज की तरह वह बस से उतरा।
तेजसिंह बन्दूक लिए खड़ा था। राजपूत ने वहीं से कटार फेंकी, कटार तेजसिंह की पीठ पर जा लगी। तेजसिंह ने बन्दूक तानी । राजपूत तलवार निकाल कर उस पर झपटा। फायर! राजपूत का एक हाथ जख्मी हो गया। उसने उसकी कोई परवाह नहीं की। वह तेजसिंह पर टूट पड़ा। उसको इस तरह टूटते हुए देखकर राजपूत का साथी भी लपका। तेजसिंह दूसरा फायर करना चाहता था कि उसके साथी ने बंदूक को पकड़कर ऊपर की ओर कर दिया।
राजपूत ने तलवार के वार करने शुरु किए। जिसके तलवार लग गई, वह वहीं ढेर हो गया।
लेकिन तेजसिंह बहुत ही बलिष्ठ और साहसी था। उसने जोर से धक्के से राजपूत के साथी को गिरा दिया। बदूक को उस पर तानकर जैसे ही फायर करना चाहा, वैसे ही राजपूत ने तेजसिह पर तलवार का वार कर दिया। तेजसिंह को एक बार धरती घूमती हुई लगी। उसकी आंखों के आगे अंधेरा छा गया।
भेडिया फिर भी संभला। पूरे जोश के साथ वह राजपूत पर टूट पड़ा ।
तभी राजपूतनी जोर से चिल्लाई, “आप सब बस में बैठे-बैठे क्या कर रहे हैं?” जाइए न, उनकी मदद कीजिए! जाइए…।
उसकी ललकार पर एक जाट और ड्राईवर कूद पड़े। ड्राईवर के हाथ में एक लोहे की हथौड़ी थी। जाट ने आई हुई कार का हैंडिल खोल दिया। दोनों तेजसिंह पर टूट पड़े।
फायर। चीखें!
लोगों ने देखा कि राजपूत एक ओर लुढ़क गया हैं। अब राजपूतनी अपने को नहीं रोक सकी। बेतहाशा अपने पति की ओर लपकी। पहली बार लोगों ने उस वीरता की तेजस्वी महान् नारी के दर्शन किए। उसका चेहरा अद्भुत ओज से दीप्त था। आँखें बड़ी बड़ी और साहस की प्रतीक थी। राजपूतनी को उतरते देखकर बस की भीड़ डाकुओं पर टूट पड़ी। डाकू तेजसिंह भी बेहोश हो गया
उसके साथी अब बस के लोगों के कब्जे में थे।
राजपूत घायल अवस्था में तड़प रहा था। वह अस्फुट स्वर में कह रहा था पानी पानी।
राजपूतनी ने आकुल स्वर में कहा, पानी।
तुरन्त पानी लाया गया। पानी की बूंदों के मुंह में जाते ही राजपूत ने आँखें खोली।
उस समय तक सेठ भी सचेत हो गया था। जब उसे मालूम हुआ कि उसकी बेटी की रक्षा के लिए वीर ने डाकुओं से संघर्ष किया है, तब वह राजपूत की ओर लपका।
मन्नी को भी पानी छिड़ककर सचेत कर दिया गया। वह भी राजपूत के पास आ गई थी।
राजपूत ने स्नेह-विचलित स्वर में कहा, कुंवराणी वह लड़की कहाँ है?
कुंवराणी ने सजल नेत्रों से देखा। तभी सेठ ने कहा, यह रही मन्नी, मेरी बेटी, बिलकुल ठीक है। आओ बेटी, इधर आओ, तुझे तेरा भईया पुकारता है।
मन्नी राजपूत के पास आई। राजपूत का एक हाथ बिलकुल घायल हो चुका था। एक गोली सीने में लग गई थी। लहूलुहान दूसरा हाथ भी था, किन्तु उसने दूसरे हाथ से मन्नी को आशीष दिया। उसके सिर पर हाथ रखकर धीमे-धीमे स्वर में बोला, अच्छी है न, बहन?
मन्नी से कुछ बोला भी नहीं गया। वह फफक पड़ी। बाद में राजपूत ने, राजपूतनी की ओर देखा। उससे वह टूटते स्वर में बोला, कुंवराणी! मैंने तुम्हारी बात पूरी कर दी, वह लड़की अच्छी है। अच्छा कुंवराणी! भूल चूक माफ करना। मेरे माँ-बाप की जिम्मेदारी अब तुम पर है। वे बहुत बूढ़े हो चुके हैं।
कुंवराणी दहाड़ मार बैठी, नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। इन्हें जल्दी से अस्पताल ले चलिए।
राजपूत के चेहरे का ओज निस्तेज हो गया। वातावरण में मृत्यु की खामोशी और सन्नाटा छाता गया। सारे यात्रियों की आंखें नम थीं समीप ही, तेजसिंह अचेत पड़ा था। जो कार आई थी, उससे राजपूत को अस्पताल ले जाने और पुलिस को खबर करने की व्यवस्था की गई।
लेकिन राजपूत का रक्त बहुत बह चुका था। उसने एक बार फिर कुंवराणी की ओर देखा, उसके हाथों की मेहँदी के फूल महक रहे थे। राजपूत अपनी बुझती आँखों से उन मेहँदी के फूलों को देखता रहा, जो सुहाग के चिन्ह थे। राजपूतनी विपुल वेदना से तड़प रही थी। वह एक बार फिर चीखी, जल्दी अस्पताल ले चलिए। लोगों ने राजपूत को उठाना चाहा। उसने हाथ से न उठाने का संकेत किया। उसका चेहरा और स्याह हो गया। उसने एक बार फिर मेहँदी रचे कुंवराणी के हाथों को देखा। मुस्कराया, उन्हें चूमा। कुंवराणी दर्द से कांप रही थी। उसने कांपते हुए स्वर में कहा, आप बिलकुल ठीक हो जाएंगे, इन्हें जल्दी अस्पताल ले चलिए। और राजपूत ने कुंवराणी के हाथों को अपने सीने से लगा लिया।
उसकी आंखें फट गईं। उसके हाथ फैल गए। कुंवराणी और सारी उपस्थिति सुबक पड़ी।
कुंवराणी ने अपने हाथ उठाए। हाथों पर बने मेहँदी के फूल खून से वीभत्स धरातल की तरह सपाट बन गए थे, जैसे हाथों पर कुछ था ही नहीं, सिर्फ रक्त ही रक्त !